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साक्षात्कार : डाॅ. के.के. अग्रवाल

अंग/देह दान : डाॅक्टरों के लिए ज़रूरी है ‘पूछना मत भूलो’

आईएमए के अध्यक्ष डाॅ. के.के. अग्रवाल से लिए गए साक्षात्कार में दधीचि देह दान समिति के उपाध्यक्ष श्री महेश ने यह जानने का प्रयास किया कि देह/अंग दान में डाॅक्टरों की क्या महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है? आईएमए क्या है? और आईएमए का संक्षिप्त परिचय? प्रस्तुत हैं साक्षात्कार के प्रमुख अंश।

महेश : आईएमए का प्रमुख कार्यक्षेत्र क्या है और इसकी सदस्य संख्या कितनी है?
डाॅ. अग्रवाल : आईएमए की सदस्य संख्या 3 लाख है। 1700 शाखाएं, 26 राज्य शाखाएं, 3500 आॅफिस बेयरर्स हैं। इसके दो कार्यक्षेत्र हैं। एक मेडिकल प्रोफेशन के लिए और एक कम्युनिटी के लिए। मेडिकल प्रोफेशन के लिए डाॅक्टरों के हितों और चिकित्सा पद्धतियों से संबंधित नीतियों व चिकित्सा शिक्षा की गुणवत्ता का ध्यान रखा जाता है। कम्युनिटी कार्यक्षेत्र में मरीज़ों के अधिकार, हर एक के लिए वहनयोग्य चिकित्सा देखभाल, उपलब्धता, स्वीकार्यता और गुणवत्ता को महत्व दिया जाता है।

महेश : दधीचि देह दान समिति दिल्ली और एनसीआर में मृत देह दान (केडेवर डोनेशन) में उल्लेखनीय भूमिका निभा रही है।लगभग सभी मेडिकल काॅलेजों से केडेवर की मांग समिति के पास आती है। मृत देह पर मेडिकल की पहले साल की पढ़ाई कितनी महत्वपूर्ण है?
डाॅ. अग्रवाल : जब तक वर्चुअल एटाॅप्सी नहीं आएगी तब तक मृत देह मूल आवश्यकताएं रहेंगी। इन पर पढ़ाई किए बिना कोई डाॅक्टर नहीं बन सकता। जब तक हमारे पास सिम्युलेटीड डिसेक्शन की व्यवस्था नहीं हो जाती मृत देह की ज़रूरत बनी रहेगी।

महेश : विदेशों में क्या सिम्युलेटीड डिसेक्शन शुरू हो चुका है?
डाॅ. अग्रवाल : हां। कई देशों में। भारत में इसकी शुरुआत में अभी वक़्त लगेगा।

महेश : क्या कारण है, भारत में अंग/देह दान अब भी बहुत शुरुआती स्तर पर है?
डाॅ. अग्रवाल : दुनिया में दो तरह की नीतियां हैं। आॅप्ट इन और आॅप्ट आउट। भारत में आॅप्टइन है जिसमें हर किसी से दान नहीं लिया जा सकता। भारत से बाहर कई देशों में आॅप्ट आउट लागू होता है जिसमें मृत्यु बाद हर किसी का अंग दान लिया जा सकता है। लेकिन सन् 2014 में लाए गए नए नियमों के तहत भारत में अपेक्षित निवेदन (रिक्वायर्ड रिक्वेस्ट) अनिवार्य हो गया है। मृत्यु की कगार पर पहुंचे हर मरीज़ के परिवार से डाॅक्टर को पूछना होता है कि वह मृत्यु के बाद मरीज़ का अंग दान करेगा या नहीं। दोनों स्थिति में उसको अपनी सहमति या असहमति लिख कर देनी होती है। भारत में इस विषय पर अभी जागरूकता कम है। विदेशों में मस्तिष्क मृत्यु होने पर आॅप्ट आउट के तहत अंगों का दान होगा ही, जब तक इसके लिए संबंधित मरीज़ पहले से मना न करे। अंग/देह दान के बारे में भी जागरूकता नहीं है। आईएमए ने 28 दिसम्बर, 2016 से एक नया अभियान ‘पूछना मत भूलो’ शुरू किया है। इसके तहत प्रत्येक डाॅक्टर को मरीज़ और उसके परिवार से अवश्य पूछना है कि वह अंग/देह दान करेगा? इसके तहत, साथ ही, डाॅक्टरों से यह भी कहा गया है कि वह हर मरीज़ से पूछें कि मृत्यु के बाद काॅर्निया दान और मस्तिष्क मृत्यु (ब्रेन डेथ) होने पर बाकी सारे अंगों का दान अथवा देह दान करेगा या नहीं? इससे अंग/देह दान की दर बढ़ जाएगी। दूसरी बात, कानून में अब भी एक कमी है। वह यह कि अगर आप किसी से अंग/देह दान का संकल्प कराते हैं तो उसका कोई महत्व नहीं है, क्योंकि उसकी मृत्यु के बाद रिश्तेदार या बच्चे दान के लिए मना कर देते हैं। यह अनिवार्य नहीं है कि जीवित वसीयत मृत्यु वसीयत मानी जाए।जीवित संकल्प की भी कोई अहमियत नहीं है, क्योंकि मृत्यु के बाद मृत देह पर बच्चों या रिश्तेदारों का अधिकार हो जाता है। मृत्यु के बाद अंग/देह दान तभी संभव होगा जब व्यक्ति अपनी वसीयत में यह लिखे कि मरने के बाद उसका अंग/देह दान होगा और इसके लिए ‘मेरे बच्चों या रिश्तेदारों की अनुमति की ज़रूरत नहीं है’। तीसरी बात, समाज में अंधविश्वास की जड़ें गहरी हैं। जैसे नेत्र दान करने पर अगला जन्म नेत्रहीन होगा या जो अंग दान किया जाएगा अगले जन्म में वह शरीर में नहीं होगा अथवा असामान्य जन्म होगा। हांलाकि इस अंधविश्वास को वैदिक काल में महर्षि दधीचि तोड़ चुके हैं। लोग अब भी यह नहीं समझ पा रहे हैं कि अंग दान करके वह किसी दूसरे देह में जीवित रहते हैं।

महेश : क्या इस तरह अंग/देह दान को बढ़ावा देने में दो पक्षों की भूमिक अहम् नहीं हो जाती?
डाॅ. अग्रवाल : जी हां! एक पक्ष है डाॅक्टरों का और दूसरा पक्ष है जनता का। जनता के लिए योजना यह है कि देश में जितनी भी श्मशान भूमि हैं, जितने भी श्मशान घाट हैं उन पर आईएमए की होर्डिंग्स लगें। इस पूरी अवधारणा को लेकर आईएमए होर्डिंग्स डिज़ाइन कर रहा है, जिसे स्वीकृति मिलते ही सभी डाॅक्टरों से कहा जाएगा कि वे इन होर्डिंग्स को लगवाएं। इसके साथ ही ‘मृत देह का सम्मान‘ अवधारणा को अनिवार्य बनाने जा रहे हैं। अब तक मृत व्यक्ति के अधिकारों के बारे में कोई नहीं जानता। इस अवधारणा में यह अनिवार्य होगा कि मृत देह की मर्यादा, संवैधानिक अधिकारों के तहत, जीवित देह के ही समान है। मृत देह का अंतिम संस्कार मर्यादा के साथ किया जाए। इसके साथ ही प्रत्येक अस्पताल के परिसर में एक प्रार्थना कक्ष हो जहां मृतक के संबंधी बाकी लोगों के आने का इंतज़ार कर सकें। काउन्सलिंग के एक काउन्सलर की भी व्यवस्था होनी चाहिए।

महेश : अंग/देह दान के संदर्भ में अंधविश्वासों को दूर करने के लिए आईएमए क्या धर्मगुरुओं को भी शामिल करेगा?
डाॅ. अग्रवाल : जी हां।धर्म गुरुओं को लेकर आईएमए 12 कार्यक्रम करने जा रहा है। इन 12 कार्यक्रमों में एक कार्यक्रम ‘मृत्यु के बाद जीवन‘ (लाइफ आफ्टर डेथ) पर होगा। इसमें लोगों को मृत्यु के बाद जीवन की अवधारणा को समझाया जाएगा कि आत्मा भटकती नहीं है। इन कार्यक्रमों में सभी धर्मों के गुरु शामिल होंगे।

महेश : यूनिवर्सिटी स्टूडेन्ट्स या कहंे युवाओं को संवेदनशील बनाने की दिशा में क्या कदम उठाए जा सकते हैं?
डाॅ. अग्रवाल : हमारे देश में 10 से 19 वर्ष तक की आयु के युवाओं की आबादी 22 प्रतिशत है। अंग/देह दान के प्रति उन्हें संवेदनशील बनाने की ज़रूरत है।़आईएमए का ‘पूछना मत भूलो’ अभियान सोशल मीडिया के ज़रिए पूरे देश में गूंजेगा। सोशल मीडिया पर सर्वाधिक सक्रिय युवाओं पर निश्चित ही इसका असर होगा।

महेश : अंग/देह दान को बढ़ावा देने में क्या स्कूलों और काॅलेजों को भी शामिल किया जाएगा?
डाॅ. अग्रवाल : अक्टूबर 2017 में आईएमए एक बड़ी प्रतियोगिता आयोजित करेगा। इस प्रतियोगिता की एक थीम अंग-दान पर होगी। इस प्रतियोगिता में करीब 400-500 स्कूल व काॅलेज शामिल होंगे।

महेश : आईएमए या स्टेट मेडिकल एसोसिएशन्स किस स्तर पर दधीचि देह दान समिति का सहयोग ले सकते हैं? दोनों साथ काम कर सकते हैं?
डाॅ. अग्रवाल : दिल्ली की हर श्मशान भूमि पर लगे दधीचि देह दान समिति के होर्डिंग्स में आईएमए का नाम जोड़ा सकता है।एक काॅमन पैम्फ्लेट बना सकते हैं, जिसे पूरी दिल्ली में वितरित कर लोगों को अंग/देह दान के प्रति संवेदनशील बनाया जा सकता है।

महेशः दधीचि देह दान समिति ने 2019 तक दिल्ली व एनसीआर को काॅर्नियल अंधतामुक्त करने का प्रण लिया है। आईएमए का इसमें क्या सहयोग हो सकता है?
डाॅ. अग्रवाल : यह बहुत उचित कदम है। इसके लिए आपको डाॅक्टरों की जो मदद चाहिए वह आईएमए देगा।

महेश : और कोई सुझाव जो अंग/देह दान में मददगार हो?
डाॅ. अग्रवाल : जागरूकता... जागरूकता... जागरूकता। इसमें डाॅक्टरों की भूमिका काफी महत्वपूर्ण है। मृत्यु के समय मरीज़ और उसके परिवार के लोग चकराए हुए, घबराए हुए होते हैं। ऐसे में डाॅक्टर ही उन्हें अंग/देह दान के लिए समझा सकता है, प्रेरित कर सकता है।

प्रस्तुति - इन्दु अग्रवाल