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प्रेरणा की नदी हेमा जौली

- प्रो . कुलविंदर सिंह एहसास

एक उम्दा शख्स, हंसता-खेलता एक चेहरा, जिनके पास चालाकी कम, कर्म और सच ज्यादा थे। शायद उन्हें एहसास हो गया था कि मेरी फिल्म जल्द खत्म हो सकती है, सो इसे जमकर जिया जाए, खुशी मनाएं कि कोई अफसोस न रहे। जिएं, रहें व रह जाएं सदा के लिए...।

मुझे बड़े कार्यक्रमों में अक्सर जाना होता है, कुछ की सूचना जैसे ही मैं दधीचि वेस्ट के ग्रुप में डालता तो पहला जवाब हेमा जी का आता था, “मैं चलूंगी”।

हम अपने घर-परिवार के सब कार्यों व व्यापार- नौकरी संभालते हुए समाज में रहते हैं, समाज के हैं, समाज से लेते हैं, समाज को कुछ देते रहें । हम अपनी-अपनी जिंदगी में दूसरों को लिए भी जीना सीखते हैं।

बस यही उद्देश्य रख कर हेमा जी ने कुछ एक साल पहले दधीचि देहदान समिति के साथ काम करना चुना।उनमें एक स्फूर्ति थी। एक-एक पल को जिंदगी में भरती जाती थी। काम के हर लम्हे को जिंदगी में भी कैद करती और कैमरे में भी। कुछ ऐसे करती, मानो सोच रखा होकि मैं जो कर रही हूं बाकी भी करें, बाद में भी करें।

दधीचि देहदान समिति एक कुंभ है, जहां हर ओर से संत-सितारे आते हैं, स्नान करते हैं, अमर हो जाते हैं। इनमें कुछ कहानियां हमें जीना सिखा जाती हैं। हेमा जी की कहानी भी हमें बहुत कुछ सिखा गई है।उनके पति कवंल बेहद शांत व अंतर्मुखी हैं, वह बिल्कुल विपरीत थीं। लेकिन हर तरह से एक दूसरे के पूरक। हेमा जी बीमार हुईं। बच्चे भी विदेश से आ गए, अंत तक तल्लीनता से सेवा करते रहे पर बचा न सके। मैं नहीं भूल पाता वह अंतिम दिन, जब मैं उनसे मिलने पहुंचा था। मैंने पूछा पहचाना, उन्होंने आंख झपकाई, “हां”। कुछ बातों के बाद आंसू छलक आए तो मैंने सूजे हुए हाथ को पकड़ा और काफी देर तक 'वाहे गुरू- वाहे गुरू' का जाप कराया । मन को शांति मिली। बच्चों को कुछ सलाह और सांत्वना देते हुए वहां से बाहर निकला।अच्छों की हर जगह जरूरत होती ही है, वो रब के घर चली गई, प्रेरणा की कभी न सूखने वाली नदी सी बनकर। हम सब भी कुछ ऐसा काम करें, निजी कामों से समय निकालें, समाज के लिए कुछ करें। मुझे लगता है, ऐसे नेक काम ही हेमा जी के लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी।