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स्वस्थवृत्त - आज के युग में

प्रो. वैद्य के. एस. धीमान ( महानिदेशक )
केन्द्रीय आयुर्वेदीय विज्ञान अनुसंधान परिषद्

भारतीय संस्कृति में जीवन का उद्देश्य चतुर्विध पुरुषार्थ की प्राप्ति माना गया है। शरीर को स्वस्थ रखना इसको पाने का प्रथम और सबसे महत्वपूर्ण सोपान है । सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक की हर एक विधि का विस्तृत वर्णन आयुर्वेद शास्त्र में इसी उद्देश्य से दिया गया है । आज के युग में मनुष्य के जीवन का लक्ष्य पुरुषार्थ सिद्धि को छोडकर केवल धन एवं सुविधाओं का संपादन करना हो गया है जिसका प्रभाव जीवन शैली पर पडा है जिसका अनुचित परिणाम व्यक्ति के स्वास्थ्य पर सर्वप्रथम पडता है। यही कारण है की जीवन शैली जन्य रोग नाम से नए रोगवर्ग के रोग जैसे प्रमेहए स्थौल्यए मानसिक तनाव आदि समूह में अत्यधिक पाया जा रहा है। कोरोना जैसे संक्रामक रोगों के बढने के आज की परिपेक्ष्य में हमारी पुरानी जीवन शैली को पुनर्जीवित करके उन विधियों के वैज्ञानिकता को समझते हुए पालन करना व्यक्ति और समाज के स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण हो गया है। इसी उपलक्ष्य से आयुर्वेद के जीवन शैली के सिद्धान्तों का आज के युग के परिपेक्ष्य में पुनर्विचिन्तन किया जा रहा है।

दिनचर्या
सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक व्यक्ति को क्या क्या नियमों का पालन करना चाहिएए यह आयुर्वेद में स्वस्थवृत्त के अन्दर दिनचर्या में बताया गया है । ब्राह्म मुहूर्त में उठना - मल मूत्र विसर्जन - शौच - दन्तधावन - जिह्वानिर्लेखन - अञ्जन कर्म - नस्य कर्म - गण्डूषध्कवलधारण - अभ्यङ्ग - व्यायाम - स्नान तथा रात्रिचर्या का क्रम से सद्वृत्त के पालन करते हुए सेवन करने को दिनचर्या कहा गया है। ये नियम मानव शरीर के प्रवर्तन के आयुर्वेदीय अध्ययन के आधार पर निश्चित किए गये है । इनका पालन संपूर्ण शारीरिक मानसिक एवं आध्यात्मिक उन्नति के लिए सहायक है तथा लम्बे आयु, रोग रहित जीवन तथा शरीर के बलए तेजए उत्साह आदि को उनके उच्च स्थिति में रखने के लिए हितकर है ।

आज के जीवन में इनका समावेश कैसे कैसे किया जा सकता हैए इसका एक प्रारूप निम्न प्रकार से है -

ब्राह्म मुहूर्त में उठना
ब्राह्म-मुहूर्त (सूर्योदय से लगभग 1½ घंटे पूर्व) मे नींद से जाग जाना स्वास्थ्य के लिए हितकर होता है । उचित प्रकार से एवं पर्याप्त मात्रा में निद्रा लेना शरीर को ज्ञान, आयु, बल व सुख की प्राप्ति होती है । इस विधि के पालन के लिए सबसे महत्वपूर्ण है कि रात को उचित समय पर व्यक्ति सोने का प्रयास करें । क्योंकि सोने से पहले रात्रि के भोजन का पचन आवश्यक हैए इसलिए रात्रि का भोजन जल्द से जल्द सूर्यास्त के समय के समीपद्ध करने का प्रयास करना चाहिए । ब्राह्म मुहूर्त की विधि अध्ययन करने वाले व्यक्ति को प्रमुख रूप से पालन करना चाहिए (जैसे विद्यार्थि, अनुसन्धान कर्ता आदि)। इसमें यह बात को भी ध्यान रखना है कि आवश्यक निद्रा हुई हो (बिना अलार्म के अपने आप नीन्द से उठे) तथा उठते समय ही शौच का वेग उत्पन्न हो। यह स्वस्थ शरीर का लक्षण होता है ।

मल मूत्र विसर्जन एवं शौचकर्म
इसमें सबसे महत्वपूर्ण नियम यह है कि शौच के वेग को बलपूर्वक उत्पन्न या रोकना नहीं चाहिए (यह विधि केवल मल मूत्र के लिए नहिं, बल्की छींक, नींद, भूख, प्यास, खांसी, जंभाई, अश्रु, छर्दि आदि के लिए भी लागू है)। जब जब वेग आए, उनका सृजन करना चाहिए। शौचकर्म के लिए ऋतु के अनुसार गरम/ठंडे पानी का उपयोग लेना चाहिए। शरीर के जो दोष रात्रि में कोष्ठ में संचित होते है, उनका शरीर से निर्हरण मलत्याग एवं शौच से होता है । अतः यह शरीर का दैनिक शोधन कर्म (पंचकर्म जैसे) है। शरीर के बहिर्निर्गमन के मार्गों के शुद्धि के पश्चात इन्द्रियों की शोधन प्रक्रिया की जाती है । इसलिए इसके पश्चात दन्तधावन आदि करने की विधि बतायी गई है।

दन्तधावन तथा जिह्वानिर्लेखन
दन्तधावन आज के युग में सभी पालन करते है, परन्तु आयुर्वेद में इसके लिए मधुर से अधिक तिक्त, कटु एवं कषाय रस वाले नीम, करंज आदि के उपयोग की विधि है। व्यक्ति अपने प्रकृति के अनुरूप कौन से रस चाहिएए वह चुन सकता है, जैसे कफ प्रकृति वाले व्यक्ति कटुध्तिक्त रस के नीम आदि तथा वात प्रकृति व्यक्ति मधुरध्लवण रस वाले दान्तुन (जैसे मधूकए सैन्धा नमक) आदि चुन सकते है। दन्त मल को साफ करने तथा शरीर के प्रमुख स्रोतस के द्वार होने के कारण बाकी इन्द्रियों से पहले इसकी सफाई की जाती है।

अञ्जन कर्म - नस्य कर्म - गण्डूष/कवलधारण
ये विधि आज के युग में कम प्रचलित है । आयुर्वेद कहता है कि अंजन से नेत्र के दोष नाक में आते है जिनका नस्य के द्वारा शरीर से निर्हरण करना है तथा नस्य के द्वारा नाक के दोष मूंह में आते है जिनका गण्डूष/कवलधारण से निर्हरण करना है। अतः नेत्र एवं नासा रोगों के प्रतिरोध के लिए तथा इन्द्रियों के निर्मलता बनाए रखने के लिए ये आवश्यक है। दन्तधावन करने के तुरंत बाद नाक में औषधि तेल की 2-2 बूंद डालने से कोरोना आदि रोगों के संक्रमण एवं वायु प्रदूषण के दुष्प्रभावों से बचा जा सकता है । इसके पश्चात तैल युक्त गुनगुने पानी से गरारे करने से गण्डूष/कवलधारण की फल की प्राप्ति भी हो जाती है।

अभ्यङ्ग
पूरे शरीर में तेल की मालिश से शरीर को बल, अस्थियों में दृढ़ता तथा अच्छी नींद आती है । आज के युग में अगर व्यक्ति हर दिन पूरे शरीर में मालिश न कर सकें तो भी सिर पर, पैरों के तलवे में तथा कानों में नहाने के पहले तेल लगाना चाहिए । ऋतु के अनुरूप तेल में परिवर्तन लाकर गर्मियों में तिल तेल या नारियल तेल एवं शीतकाल में सरसों तेल से अभ्यंग करना चाहिए । यह भी ध्यान रखा जा सकता है कि सप्ताह में कम से कम एक दिन (जैसे छुट्टी के दिन) संपूर्ण शरीर की मालिश करनी चाहिए ।

व्यायाम
आज के युग में व्यायाम के नाम पर जिम आदि में जाकर अत्यधिक आयास करने को सूचित करते है। परंतु आयुर्वेद में व्यक्ति को अपनी शारीरिक क्षमता के अनुसार ही व्यायाम करने का ही विधि है जिसकी पहचान माथे पर पसीने के आने से सूचित होती है। नियमित व्यायाम करने से शरीर का बलवर्धन होता है। खालीपेट व भोजन करने के तुरंत बाद व्यायाम वर्जित कहा गया है । आज के युग में हर व्यक्ति को अवश्य रूप से व्यायाम के लिए समय निकालना चाहिए क्योंकि इससे कई रोगों का प्रतिरोध होता है। नियमित व्यायाम करने से आहार पचनशक्ति और कार्यक्षमता की वृद्धिए शरीर में हल्कापन तथा शरीर को स्थैर्य की प्राप्ति इत्यादि होते हैं । जो रोग आदि से व्यायाम करने मे असमर्थ है, वे योग आसनए सूर्य नमस्कार आदि अपने शरीर के अनुरूप व्यायाम कर सकते हैं । इसके अलावा खेल कूद के लिए समय निकालना मानसिक तनाव से मुक्ति के लिए भी सहायक होगा ।

स्नान
आज के युग में लगभग सभी लोग इसका नियमित पालन करते है। परंतु स्नान में यह सुनिश्चित करना चाहिए की ऋतु के अनुरूप सुखोष्ण जल का उपयोग करें तथा सिर के ऊपर गरम पानी न डाले जिससे नेत्र को हानी पहुंचती है। खाना खाने के पश्चात स्नान नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे आहार का सम्यक पचन नहिं होता है।

आहार विधि
स्नान के पश्चात आहार लेने की विधि है। आहार की विधि का आयुर्वेद में बहुत विस्तृत वर्णन है। आज के युग में व्यक्ति के आहार में बहुत परिवर्तन आए है। हर क्षेत्र के अपने पारंपरिक खान पान के व्यवस्थाएं थी जो आज लगभग लुप्त हो रही है। ये विधियां उस क्षेत्र के प्रकृति और लोगों के स्वास्थ्य के अनुरुप बनाई गई थी। अतः इनके त्याग से कई रोग उत्पन्न हो रहे है। पारंपरिक पकवान विधि भी आयुर्वेद के सिद्धान्तों के अनुरूप थी जो स्वाद के साथ स्वास्थ्य का भी ध्यान रखती थी। आज स्वाद के पीछे जाकर व्यक्ति स्वास्थ्य से दूर चला गया है। इस समस्या का समाधान पारंपरिक खान पान की विधि का पालन ही है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने पचनशक्ति के अनुरूप मात्रा में आहार लेना चाहिए (जितनी भूख है, उतनी भोजन लेना चाहिए)। उचित समय पर तथा संतुलित भोजन करना आरोग्यकारक है। आयुर्वेद में सन्तुलित भोजन का तात्पर्य षड्रस आहार से है, जिसमें मीठा, खट्टा, नमकीन, कडवा, तीखा एवं कसैले रस के पदार्थ हो। पहले खाए हुए आहार का पाचन होने से पहले अगला भोजन नहीं लेना चाहिए तथा बहुत जल्दी-जल्दी, बहुत धीरे-धीरे, बातचीत करते हुए, टेलीविजन एवं मोबाईल इत्यादि देखते हुए भोजन नहीं करना चाहिए। एकाग्र मन से भोजन करना चाहिए । बासी या फ्रिड्ज का खाना या दोबारा गरम किया खाना नहीं लेना चाहिए। रात्रि में दही व सत्तू नहीं लेना चाहिए। साठी चावल, शाली चावल, मूंग दाल, सेंधा नमक, जौ का आटा, गाय का दूध व घी इत्यादि का सदा सेवन हितकर होता है । परिवार के सदस्यों को साथ बैठकर आनन्दपूर्वक खाना चाहिए। भोजन के पश्चात सौ कदम टहलना पचन के लिए हितकर है । दूध के साथ खट्टे फलए दूध के साथ नमक आदि कुछ आहार विरुद्ध कहे गए है जिनका सेवन नहीं करना चाहिए।

रात्रिचर्या
रात को जल्दी सोने का प्रयास करें । सूर्यास्त के पश्चात शरीर में निद्रा का प्रवर्तन स्वाभाविक रूप से होता हैए परंतु कृत्रिम प्रकाश व्यवस्था के कारण आज के युग में निद्रा का समय अर्धरात्री के पश्चात भी निकल जाता है। रात्रिजागरण से शरीर में रुखापन तथा वात की वृद्धि होती है। जैसे पूर्व सूचित किया गया था, सोने से पहले रात्रि के भोजन का पचन आवश्यक है, इसलिए रात्रि का भोजन जल्द से जल्द (सूर्यास्त के समय के समीप) करने का प्रयास करना चाहिए ।

सद्वृत्त
जैसे पूर्व सूचित किया गया था इन सभी विधियों का सेवन सद्वृत्त के पालन करते हुए करना है। सद्वृत्त का अर्थ सदाचार का पालन है। यह व्यक्ति एवं समाज के स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण है। उदाहरण के लिएए आयुर्वेद में सहस्रों वर्षों पूर्व यह निर्देश दिया गया है की न केवल छींकते वक्त, बल्की हसते एवं जंभाई लेते समय भी अपने मूह को ढकना चाहिए। आज के परिस्थितियों में इसका विशेष महत्व है। इसी तरह कई अन्य विधि है जिनका पालन सामाजिक एवं व्यक्तिगत स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण है। ये विधियां न केवल शरीरिक स्वास्थ्य, बल्की मानसिक एवं आध्यात्मिक उन्नति को भी लक्ष्य करके बनाई गई है।

ऋतुचर्या
ऋतु के अनुरूप दिनचर्या में परिवर्तन करना ही ऋतुचर्या है। गर्मियों में गरमी से बचने के उपायए ठंड में ठड से बचने के उपाय एवं बारिश में पाचन शक्ति कम होने से बचाव ऋतुचर्या है। हर ऋतु में उस ऋतु के फल-सब्जी का उपयोग ही उस ऋतु का सम्यक आहार है। योग के धौतिए नेती आदि षट्कर्म या आयुर्वेद में वर्णित ऋतुशोधन (वैद्यक परामर्श से वसंत में वमनए शरद में विरेचन आदि करना) भी शरीर को शुद्ध रखने तथा रोग उत्पन्न होने से बचाने में अत्यधिक उपयोगी है।

कुछ प्रायोगिक उपाय

  1. प्रत्येक व्यक्ति को एक दैनिक तालिका (Time-table/checklist) बनाकर उसमें अंकन करके यह प्रति दिन शाम को आकलन करना चाहिए की उस दिन कौन-कौन से दिनचर्याओं का पालन किया है। इस तालिका को घर में आईने के पास या दिखने वाले जगह पर रखना चाहिए ।
  2. अंजन एवं नस्य के तैल की कूपी (bottle) को अपने दान्तून के पास ही रखे ताकि उससे यह याद आ सके की दन्तधावन के तुरंत बाद ये करने है।
  3. अभ्यंग के तैल को स्नान गृह में ही रखे ताकि उसको देखकर स्नान से पहले अभ्यंग करने की याद आ जाए ।
  4. हितकर भोजन का तालिका बनाकर पाकगृह (kitchen) में रखे ।
  5. अवकाश काल में सुदूर ग्रामीण परिवेश का भ्रमण/निवास अपनी सभ्यता व जीवन चर्या का प्रात्यक्ष अनुभव करना, यह प्रात्यक्षिक पहलू असम्भव प्रतीत नहीं होगा अपितु ऊर्जा दायक ही रहेगा ।

जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति केलिए शरीर स्वस्थ रखना आवश्यक है। अतः इसके महत्व को समझकर आयुर्वेद में वर्णित दिनचर्या एवं स्वास्थ्य के अन्य नियमों का पालन करें । स्वस्थ जीवन चर्या का अभ्यास नित्य प्रति द- धीरे धीरे बढाने से आपके रहन सहन का अभिन्न अंग बन सकता हैए अल्प काल में नहीं । परिणाम भी दीर्घ कालीन अभ्यास के पश्चात् परिलक्षित होंगे ।