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नवदधीच: मरने की कला से, जीवन जीना सिखा गए

डॉ विशाल चड्ढा
उपाध्यक्ष, दधीचि देह दान समिति

दाभाडकर जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पुराने कार्यकर्ता थे। नागपुर में रहते थे। 85 वर्ष के हो गये थे पर अभी भी सक्रिय थे।

उन्हें कोरोना हो गया था। ऑक्सीजन घट कर 60 रह गई थी। परिवार के लोगो ने सिफारिशे भिड़ा कर नागपुर के इंदिरा गाँधी शासकीय अस्पताल में एक बैड की व्यवस्था कर ली। नारायण जी को अस्पताल लेकर पहुचें और भर्ती की प्रक्रिया शुरू हो गई। नारायण जी को एक जगह बैठा दिया था।

वहां नारायण जी का ध्यान रोती बिलखती लगभग 40 साल की एक महिला की ओर गया। वह अपने पति को अस्पताल लेकर आई थी। दो बच्चे भी साथ थे। महिला के पति को कोरोना हो गया था। उसकी हालत अच्छी नही लग रही थी। अस्पताल में कोई बैड भी खाली नही था। अस्पताल ने उस व्यक्ति को एडमिशन देने से मना कर दिया। यह एक गंभीर स्थिति थी।

नारायण जी ने यह सारा दृश्य देखा। उन्होंने अपना जीवन समाज की सेवा में ही तो लगाया था। इस दृश्य ने उनके मन की करुणा जागृत की। नारायण जी स्थिर क़दमों और निश्चित मन से अस्पताल के प्रशासक के पास गये। उन्होंने बताया कि उनको एक बैड मिल गया है। नारायण जी ने कहा कि "मैं 85 वर्ष का हो गया हूँ। मैंने अपनी जिन्दगी जी ली है। पर उस महिला के पति की जरूरत मेरे से बड़ी है। उसकी गृहस्थी कच्ची है, पत्नी और बच्चो की जिम्मेवारी भी अभी है, निश्चित ही अस्पताल के बैड की उसकी जरूरत मेरे से ज्यादा है। मेरा बैड उसको दे दीजिये।"

अस्पताल के प्रशासक यह सुन कर स्तब्ध रह गये। उसके सामने खड़े नारायण जी अपना बैड यानि अपना जीवन उस अनजान व्यक्ति की आवश्यकता के लिए दान कर रहे थे। कुछ लोगो ने नारायण जी को समझाने का प्रयत्न किया। नारायण जी का चेहरा करुणा और अध्यात्म से दमक रहा था। वह अपने निश्चय में अटल थे। अस्पताल के कहने पर उन्होंने लिख कर दिया, "मैं अपना बैड इस युवक के लिए खाली करके अपनी इच्छा से घर लौट रहा हूँ।" उस अपरिचित युवक को बैड और इलाज मिल गया।

नारायण जी प्रसन्न मन से अपनी बेटी-दामाद के साथ उनके घर लौट आये। लगभग तीन दिन बाद उनका स्वर्गारोहण हो गया।

नारायण जी का त्याग आज के युग में एक रौशनी की किरण लेकर आया है।

जरा सोचिए, स्वेच्छा से अपने जीवन को एक नौजवान के जीवन के लिए सहर्ष न्योछावर करने वाला व्यक्तित्व कैसा रहा होगा। क्या उनमें जीवन को और अधिक जीने की चाहत नहीं थी। अगर ऐसा होता तो वे इलाज के लिए मारामारी कर अस्पताल में भर्ती होने नही आते।

परन्तु जीवन को यज्ञ की भांति जीने के संस्कार, इस निर्णय के लिए उत्तरदायी रहें होंगे। जीवन भर स्वयंसेवक बन लोककल्याण में निरंतर आहुतियां देने का प्रशिक्षण एक विशेष संकल्प और बलिदान को जन्म दे गया।

ॐ अग्नये स्वाहा। इदं अग्नये, इदन्नमम

यह शरीर मेरा नहीं है, यह जीवन भी भगवान् का दिया हुआ है। मैं बंधनों से मुक्त हूँ। मैं शरीर में रहने वाला शुद्ध बुद्ध मुक्त आत्मा हूँ। यह जीवन मुझसे अधिक जरूरतमंद को जाना चाहिए, यह निर्णय स्वतः ही उनके अंतर में आया होगा।

नारायण जी ने देह छोड़ दी। देह अग्नि को समर्पित हो गई। अंत्येष्टि यानी अंतिम यज्ञ भी पूर्ण हुआ। शरीर में पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश का अंश उनको लौटा दिया गया। मुक्त आत्मा सूर्यलोक के भी पार ब्रह्मतेज में विलीन हो गई।

संत का यह भाव उपयोगी जीवन जीने की जीवन शैली और परमात्मा को पूर्ण समर्पित होने का यह उदहारण है। एक परिवार पर परोपकार कर, अपने जीवन की आहूति देकर पुनः दधीचि कथा को नारायण जी ने अपनी मृत्यु से सत्य कर दिया।

ऐसी पुण्यात्मा इस आपातकाल के अंधकार में भी जीवन और मृत्यु - दोनों को मानवता के लिए समर्पित करना सिखा गई।