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अम्मा, पंडिता राकेश रानी

सुमेधा कैलाश

श्रद्धांजलि के रूप में अम्मा के बारे में लिख पाना इतना कष्टप्रद हो सकता है, यह इन पंक्तियों के लिखते समय अनुभव हो रहा है। पंडिता राकेश रानी यदि सिर्फ मेरी मां होतीं तो भी मुश्किल था, लेकिन दयानंद संस्थान की अध्यक्षा, जनज्ञान पत्रिका सहित कई पुस्तकों की संपादिका और लेखिका, चारों वेदों के हिन्दी भाष्य सहित वैदिक और आध्यात्मिक साहित्य की सैकड़ों पुस्तक पुस्तिकाओं की प्रकाशिका और आर्य हिन्दू नेत्री जैसे उनके व्यक्तित्व के अनेकों आयाम हैं।

उनकी पांच बेटियों में मैं दूसरे नम्बर पर हूं। मुझे अपनी तीन-चार साल की आयु से राष्ट्र भक्ति, ईश्वरीय प्रार्थना, महापुरुषों की कथाएं सुनाती हुईं अपनी अम्मा का चेहरा स्मरण रहता है। कभी टेबुल पर बैठकर लिखते हुए तो कभी खाना पकाते और कभी पिताजी तथा हम बच्चों के साथ अभावों में खिलखिलाते हुए उनके सुन्दर चेहरे को भुला पाना असंभव है। एक दिन मैंने देखा कि अम्मा कोने में छिपकर रो रही थीं, क्योंकि मेरे मां-बाप ने मुझे बड़ौदा के प्रसिद्ध कन्या गुरुकुल में भेजने का फैसला कर लिया था। वे जब भी बीच-बीच में मुझसे मिलने बड़ौदा आतीं, मेरी पढ़ाई और स्वास्थ्य के अलावा भारत की संस्कृति और आर्य समाज के सिद्धांतों से प्रेरित संस्कारों के विकास पर गहरी नजर रखती थीं। एक बार जब मैंने गुरुकुल के वार्षिक उत्सव में भक्त कवियत्री मीराबाई का अभिनय करते हुए नृत्य-नाटिका प्रस्तुत की, तो अम्मा ने भावुक होकर मंच पर आकर मुझे गले लगा लिया था।

सन 1976 में जनज्ञान में अपने लेखों के कारण प्रसिद्ध हो चुके कैलाश सत्यार्थी को देखकर हममें से किसी को विश्वास नहीं हुआ था कि वे सिर्फ 22 साल के युवक थे। मेरी उम्र भी 21 साल की थी। यूं तो अम्मा सभी के साथ मृदुभाषी और स्नेही थीं, परन्तु कैलाश जी के प्रति उनका मातृत्व भाव देखकर हम सारी बहनें हैरान थीं। साल डेढ़ साल बाद जब उन्हें पता लगा कि हम लोग एक-दूसरे को पसंद करने लगे हैं, तो पहले उन्होंने सीधे-सीधे मुझसे बात की। संकोच के मारे मैं चुप ही रही। कुछ महीनों बाद जब कैलाश जी दिल्ली आए और अम्मा से मिले, तो मुझे देखकर बड़ी हैरानी हुई कि वे मेरे भविष्य की चिंता करते हुए इतनी गहराई से पूछताछ और छानबीन कर रहीं थीं। हालांकि अम्मा उनसे बहुत स्नेहपूर्ण व्यवहार करती थीं। खैर, सन 1978 में आर्य समाज मंदिर में बहुत सादगी से अम्मा-पिताजी ने हमारा विवाह सम्पन्न कराया।

इतने बड़े संस्थान और प्रकाशन का कार्यभार संभालने, हिन्दू हितों की रक्षा करने के लिए निरंतर संघर्ष में जुड़े रहने, अपने प्रखर लेखन के कारण अन्य मतावलंबियों द्वारा किये गए लगभग 40 मुकदमों में फंसे रहने आदि के बावजूद अपनी बेटियों के लिए वे हमेशा एक संजीदा मां बनी रहीं। मेरे पिताजी पंडित भारतेन्द्र नाथ जो बाद में वानप्रस्थी होकर महात्मा वेदभिक्षु कहलाए, गजब के फक्कड़, धुन के धुनी, परंपरा और लीक सेे हटकर चलने वाले और पागलपन की हद तक स्वामी दयानंद के दीवाने थे।

उनकी सहधर्मिणी रह कर अपनी प्रतिभा, गरिमा और व्यक्तित्व को अक्षुण्ण रहते हुए वेदों की पुनस्र्थापना के लिए सफल अभियान खड़ा कर देना आसान नहीं था। वह अम्मा ही थीं जो 18-18 घंटे परिश्रम करके, विपरीत परिस्थितियों और विरोधों के बीच सौम्यता और भारतीय नारीत्व के उच्चतम मूल्यों का निर्वहन करते हुए पिताजी के दिवंगत हो जाने के बाद भी संस्थान के कार्यों का संचालन करती रहीं।

अम्मा पिछले लगभग पांच वर्षों से मृत्यु को भी पराजित करके वेंटिलेटर पर पड़ी-पड़ी वैदिक धर्म की सेवा करती रहीं। इतना ही नहीं उन्होंने दधीचि देहदान समिति के माध्यम से अपनी देह का दान कर दिया था। अंततः 9 अप्रैल को वेद मंदिर में वे नश्वर शरीर छोड़कर ईश्वरत्व में विलीन हो गईं। दुर्भाग्य से कोरोनावायरस के लाॅकडाउन के कारण अखिल भारतीय आर्युविज्ञान संस्थान उनकी देह ग्रहण करने में असमर्थ था। इसलिए 10 अप्रैल को पूर्ण वैदिक पद्धति से उनका अंतिम संस्कार करना पड़ा। अम्मा हमारे बीच नहीं हैं, यह स्वीकार करना बहुत मुश्किल है, लेकिन हम सभी बेटियों और दामादो के माध्यम से धर्म, राष्ट्र और मानवता की जो भी सेवा होगी उसमें अम्मा की प्रेरणा और आशीर्वाद शामिल रहेगा।