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परोपकार की स्वाभाविक प्रक्रिया अंग व देह दान

मनुष्य की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि समाज में उसकी एक पहचान हो। और, उसके द्वारा किए गए कार्यों से उसे जाना जाए। यह तभी सम्भव है जब हमारे विचारों में, हमारे व्यवहार में और हमारे द्वारा किए जा रहे कार्यों में परोपकार की भावना हो।

यदि हम परोपकार को परिभाषित करने का प्रयास करें तो दूसरों की आवश्यकता को पूरा करना ही परोपकार का श्रेष्ठतम उदाहरण कहा जा सकता है। जैसे प्यासे को पानी पिलाना, भूखे को भोजन कराना, निरक्षर को साक्षर बनाना, निर्वस्त्र को वस्त्र देना, बेरोज़गारों को रोज़गार दिलाना, रोगी को चिकित्सा उपलब्ध कराना ये सभी इसी श्रेणी में आते हैं।

ईश्वर सभी की आवश्यकताओं को पूरा करता है। इसीलिए उसे हम दयालु, कृपालु और महान मानते हैं। वह आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ हम सभी को जीवन भी देता है। असाध्य रोगियों के इलाज के लिए साधन भी उपलब्ध कराता है।

मनुष्य ईश्वर तो नहीं बन सकता लेकिन ज़रूरतमंद रोगियों को अपना अंग या मृत्यु के बाद अपनी देह का दान करके उनका जीवन बचाने का नेक काम अवश्य कर सकता है। भगवान ने हमें जो देह दी है और उसके भीतर जो भी अंग हैं वह सभी मृत्यु बाद उन दूसरे ज़रूरतमंद मरीज़ों को जीवनदान देने में काम सकते हैं जो या तो अपने-अपने परिवार के सहारा हैं या दान से वह अपनी आयु पूरी कर सकते हैं। और जब हम यह संकल्प ले लेते हैं तो यही अंग/देह दान कहलाता है।

नेत्र दान से जहां अनेक लोगों को दृष्टि मिल सकती हैं, वहीं हृदय, गुर्दे, यकृत, फेफड़े, पेंक्रियाज़, तन्तु (टिश्यूज़), आंतें (इन्टेस्टाइन्स), त्वचा, अस्थियां, मज्जा, हृदय-वाॅल्व आदि देकर कई जीवन बचाए जा सकते हैं। नेत्रों के अतिरिक्त किसी व्यक्ति के सभी अंग निकालना तभी सम्भव होता है जब उसकी मस्तिष्क मृत्यु (ब्रेन डेथ) हुई हो, और इन अंगों को उनके प्रत्यारोपण तक सक्रिय रखना होता है, जबकि मृत्यु बाद दान किए गए नेत्र लम्बे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है।

एक सर्वेक्षण के अनुसार अपने देश में नेत्रहीनों की संख्या लगभग 6,82,500 है। और, अपने देश में हर रोज़ अनुमानतः 62,400 लोगों की मृत्यु हो जाती है। इतनी बड़ी संख्या में प्रतिदिन मृत्यु को प्राप्त होने वाले व्यक्ति यदि अपनी दोनों आंखें दान कर दें तो इस आंकड़े के अनुसार लगातार 11 दिन उनकी आंखें नेत्रहीनों में प्रत्यारोपित की जाएं तो अपना देश नेत्रहीनता से मुक्त हो जाएगा। क्या हम ऐसे सुखद स्वप्न की पूर्ति की कल्पना कर सकते हैं? यहां यह बताना तर्कसंगत है कि हमारे पड़ोसी देश श्रीलंका में प्रत्येक व्यक्ति के लिए मृत्यु के बाद नेत्रदान करना आवश्यक है। काश! हमारे देश में भी ऐसा सम्भव हो जाए।

सामान्य मृत्यु के परिप्रेक्ष्य में कोई भी व्यक्ति अपनी जीवनलीला समाप्त होने के बाद चिकित्सा विद्यार्थियों के अध्ययन हेतु अपनी देह को मेडिकल काॅलेज को दान देने का संकल्प ले सकता है। उल्लेखनीय है कि पूरे देश के विभिन्न अस्पतालों में लगभग 5 लाख ऐसे व्यक्तियों का पंजीकरण है जिन्हें जीने के लिए विभिन्न अंगों की ज़रूरत है।

हम में से अधिकांश गुर्दा-प्रत्यारोपण और हृदय प्रत्यारोपण से परिचित हैं, लेकिन शरीर के अन्य कई अंगों का भी प्रत्यारोपण हो सकता है इसकी जागरूकता जनमानस में बनाए जाने की आवश्यकता है। दधीचि देह दान समिति इसी जन-जागरण कार्य में संलग्न है और बड़ी संख्या में लोग देह/अंग दान का संकल्प ले चुके हैं।

अपने इसी सुसंकल्प से व्यक्ति मृत्यु के बाद भी जीवित रह सकता है। दुनिया को देख सकता है और अपने दान किए गए अंगों से ज़रूरतमंद रोगियों को जीवन देकर मृत्यु को भी जीवन के समान सार्थक बना सकता है। किसी के शरीर में वह हृदय की धड़कन बन सकता है। समझा गया है कि एक व्यक्ति अपने अंग और देह दान से लगभग 16 से 30 व्यक्तियों को रोगमुक्त एवं सार्थक जीवन दे सकता है।
इसीलिए अंग दान और देह दान को महादान की संज्ञा दी गई है। व्यक्ति का निःस्वार्थ देह/अंग दान का संकल्प न केवल महर्षि दधीचि की परम्परा को जीवित रख सकता है बल्कि दान देने वाले को महामानव की श्रेणी में रख देता है।

 - विनोद अग्रवाल