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साक्षात्कार : मुश्किल नहीं है यकृत का प्रत्यारोपण के बाद जीवन

दिल्ली सरकार मेें एडीजी (जज) श्री सुदेश कुमार का 6 जुलाई 2015 को यकृत प्रत्यारोपण हुआ। यह प्रत्यारोपण अपोलो में हुआ। प्रत्यारोपण के बाद जज साहब अब तक बिल्कुल ठीक हैं। क्योंकि यकृत का मैच और प्रत्यारोपण आसान नहीं है और इसे आसानी से दूसरा शरीर स्वीकार नहीं करता है। दधीचि देह दान समिति के श्री महेश पंत ने उनसे मिल कर ई-जर्नल के लिए इस पर और उनके स्वास्थ पर विस्तार से चर्चा की। प्रत्यारोपण के लिए उनकी पत्नी सुनीता ने अपना यकृत दान किया। बातचीत में श्री महेश पंत ने उनकी पत्नी और बेटे अरुण कुमार की भावनाओं को भी जानने का प्रयास किया। जज साहब के परिवार में पत्नी और बेटे के अलावा एक बेटी भी है। श्री अरुण कुमार वकालत करते हैं।

जज श्री सुदेश कुमार की आयु 54 साल है। उन्हें कुछ साल पहले यकृत (लिवर) की तकलीफ शुरू हुई। खाना-पीना हज़म होना बंद हो गया, उल्टियां होने लगी थीं। पहले आनंद विहार के काॅस्माॅस अस्पताल में जांच कराई। वहां उन्हें भर्ती कर लिया गया। बारह दिन रहे। वहां से आने के बाद उन्हें पीलिया हो गया। उसका इलाज किया। और करते-करते बाद में यकृत में खराबी का पता चला तो आईएलबीएस अस्पताल में भर्ती हो गए। वहां करीब डेढ़ साल तक इलाज चलता रहा। लेकिन हालत में कोई सुधार नहीं हुआ, बल्कि जज साहब की पत्नी श्रीमती सुनीता के अनुसार यूरिन में खून भी आने लगा था। फिर आईएलबीएस के डाॅक्टरों ने कहा कि यकृत प्रत्यारोपण ही आखिरी इलाज है। जज साहब सेकेंड ओपीनियन लेने अपोलो अस्पताल चले गए। बेटे अरुण कुमार के मुताबिक वह अकेले ही गए, जहां उनकी सारी मेडिकल रिपोर्ट्स देखने के बाद बताया गया कि जज साहब के पास सिर्फ छह महीने रह गए हैं और उन्हें इससे पहले ही यकृत प्रत्यारोपण कराना होगा।

जज साहब ने बताया कि यह पता लगने पर कि यकृत प्रत्यारोपण ही इलाज का आखिरी रास्ता है, पहला सवाल मन में आया कि प्रत्यारोपण के लिए उन्हें यकृत मिल पाएगा या नहीं? साथ ही कुछ पल के लिए घबराहट भी हुई। लेकिन, घबराहट को उन्होंने परिवार से छिपा लिया और पत्नी व बच्चों के सामने सहज बने रहे।

बेटे अरुण कुमार के मुताबिक उन्हें 2011 से ही, जब जज साहब का आईएलबीएस अस्पताल में इलाज चल रहा था, यह पता था उनके पिता को लिवर सोराइसिस है। उनका यकृत सिकुड़ कर आकार में छोटा हो गया है। डाॅक्टर भरोसा दे रहे थे कि दवाइयों से ठीक हो जाएंगे। लेकिन एक स्टेज पर आकर डाॅक्टरों ने संकेत दिया कि उनके पिता के पास सीमित समय बचा है और यकृत प्रत्यारोपण के लिए परिवार मन को तैयार कर ले। आईएलबीएस के डाॅक्टरों ने दो बार यह संकेत दिया। फिर सभी ने सेकेंड ओपीनियन लेने का मन बनाया और जज साहब अपोलो अस्पताल चले गए। वहां भी यकृत प्रत्यारोपण ही एकमात्र इलाज बताया गया। अपोलो अस्पताल के डाॅक्टरों के अनुसार एक हाइपलपोटल रक्तशिरा होती है जो यकृत से गुजरती है। उसको नापने (उसका मेज़रमेंट करने) के लिए एचपीवीजी टेस्ट होता है। और पोटल वेन (रक्तशिरा) पर काफी दबाव पड़ रहा था, लगभग 21 के आस-पास और वो फट भी (बस्र्ट हो) सकती थी, जिससे अंदरूनी रक्तस्राव हो सकता था, जो जान लेवा हो जाता।

जज साहब की असहनीय तकलीफ और डाॅक्टरों के बताए सीमित समय को देखते हुए परिवार उनके यकृत प्रत्यारोपण के लिए मानसिक तौर पर तैयार हो गया। सबसे पहले पत्नी सुनीता ने मैचिंग टेस्ट कराया और वह सफल रहा। मैचिंग टेस्ट में यृकत मैच के साथ तन्तुओं (टिश्यूज़), ब्लड ग्रुप और डीएनए क्राॅस मैच के भी टेस्ट होते हैं। हालांकि बेटा अरुण भी अपना यकृत देने को तैयार था। उसका ब्लड ग्रुप ओ-पाॅज़िटिव है। लेकिन पहली बार में ही पत्नी सुनीता का मैच हो गया और वह अपना यकृत देने के लिए अड़ गईं। मैच होने के 15-20 दिन बाद जज साहब का यकृत प्रत्यारोपण का आप्रेशन कर दिया गया। इसके लिए पत्नी का 59 प्रतिशत यकृत निकाल कर जज साहब के शरीर में प्रत्यारोपित कर दिया गया। प्रत्यारोपण से ठीक एक दिन पहले एक बार फिर मैचिंग टेस्ट हुए। जज साहब को 2 जुलाई 2015 को अपोलो में एडमिट किया गया और 6 जुलाई 2015 को उनका आॅप्रेशन हो गया।

प्रत्यारोपण के आॅप्रेशन से पहले दान दाता और दान लेने वाले की अपोलो अस्पताल में काउंसलिग की जाती है। आॅप्रेशन से पहले दो काउंसलिंग सत्र होते हैं जिनमें उन्हें सब समझाया जाता है। प्रोज़ एंड डन्स बताए जाते हैं, बेनिफिट्स बताए जाते हैं, क्या जटिलताएं हो सकती हैं यह बताया जाता है। और इसके बाद ही दान दाता और दान लेने वाले की प्रत्यारोपण के लिए सहमति ली जाती है।
श्रीमती सुनीता की उम्र 52 वर्ष है। वह गृहणी हैं। उन्होंने बताया कि प्रत्यारोपण के बाद उनकी दवाइयां दस दिन बाद रोक दी गईं लेकिन उन्हें कम से कम तीन महीने तक कोई भारी चीज़ उठाने कि लिए मना कर दिया गया। लेकिन अस्पताल से छह दिन बाद घर आते ही वह जज साहब के लिए खाना बनाने लगीं, क्योंकि डाॅक्टरों ने उनसे जज साहब को नाॅन वेज ज़रूर देने पर ज़ोर दिया था। डाॅक्टरों ने उन्हें यह भी बताया था कि यह नाॅन वेज बनाया कैसे जाएगा। डाॅक्टरों के मुताबिक उनका यकृत साल भर के अंदर अपना नाॅर्मल आकार ले लेगा। जज साहब को डाॅक्टरों ने तीन महीने तक पूर्ण आराम के लिए कहा था लेकिन उन्होंने उनकी अनुमति से डेढ़ महीने बाद ही अदालत जाना शुरू कर दिया। उनकी अधिकांश दवाइयां बंद हो गई हैं। सिर्फ दो गोलियां उन्हें जीवन भर लेनी पडेंगी। इन गोलियों को इम्युनोसप्रेसेन्स कहते हैं। लेकिन उनका परहेज सिर्फ एक साल चलेगा यानी वह बाहर का कुछ भी नहीं खाएंगे-पीएंगे। घर का बना बिना घी-तेल और हल्के नमक का खाना ही उन्हें खाना है।

इस पूरी बातचीत के बाद जब उनसे पूछा गया कि वह दान के महत्व को समझ गए होंगे और अब वह इस दिशा में भविष्य में क्या करना चाहेंगे, दूसरों को कैसे प्रेरित करेंगे और क्या दधीचि देह दान समिति से जुड़ना चाहेंगे? तो उन्होंने कहा कि निश्चय ही वह दूसरों प्रेरित करेंगे और समिति की अगर कोई पत्रिका है तो उसे बांट कर, देह/अंग दान के लिए प्रचार करेंगे।