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देहदान संकल्प से साधारण मृत्यु बन जाती है असाधारण

-हर्ष कुमार

“ नेत्रदान के मामले में विश्व में श्रीलंका का स्थान बहुत ऊपर है। अपनी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और परोपकार की भावना के कारण वहां का बहुसंख्यक बौद्ध समाज नेत्रदान का संकल्प लेता है। जिसके कारण मृत व्यक्ति के दो नेत्रों से ऐसे दो लोगों के जीवन में प्रकाश फैल सकता है जो प्रकृति की सुंदरता और अपने प्रियजनों को न देख पाने के लिए अभिशप्त थे।”

यह कैसा विचित्र प्रश्न है, मृत्यु के पश्चात कैसे जीवित रह सकते हैं। यह तो संभव ही नहीं है। मृत्यु हुई तो व्यक्ति समाप्त और अंतिम संस्कार हुआ तो उसकी देह भी समाप्त। व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात उसकी देह से परिवार जनों का कोई मोह नहीं रहता। अपने-अपने रीति-रिवाज या धार्मिक मान्यताओं के अनुसार हिन्दू,मुसलमान,पारसी,ईसाई आदि शीघ्रतिशीघ्र पार्थिव शरीर पंचतत्वों में विलीन कर देने के आयोजन में जुट जाते हैं। अनंत की यात्रा पर चले जाने वाला व्यक्ति कुछ समय तक अपने परिवारजनों और मित्रों की स्मृति में रहता है और वह स्मृति भी दिन-प्रतिदिन क्षीण होती चली जाती है। उसकी देह के सदुपयोग का कोई विचार सामान्यतः किसी के मन में नहीं आता। विचार यह होना चाहिए कि मृत्यु के पश्चात हमारे प्रियजन की देह के किसी अंग के उपयोग से यदि किसी अन्य की जीवन प्रत्याशा में वृद्धि हो सकता है तो यह निर्णय एक साधारण मनुष्य की साधारण मृत्यु को असाधारण बना सकता है। इस प्रकार मनुष्य अपनी मृत्यु के पश्चात भी अपने सत्कर्मों के रूप में और मानव मात्र के प्रति सद्भावना के रूप में जीवित रह सकता है।

अभी कुछ समय पूर्व मार्क्सवादी नेता सीताराम येचुरी की मृत्यु के पश्चात उनकी देहदान की खबर समाचार पत्रों में प्रमुखता से प्रकाशित हुई थी। भाजपा नेता और सामाजिक कार्यकर्ता नाना जी देशमुख का भी देहदान हुआ था। समय-समय पर अन्य अनेक विशिष्ट और सामान्य जनों के देहदान और नेत्रदान की खबरें सामने आती रहती हैं। ऐसा लगता है कि देहदान एवं अंगदान के विचार के लिए समाज में स्वीकार्यता धीरे-धीरे बढ़ रही है। किन्तु आमजन के मन में इसके साथ-साथ स्वाभाविक रूप से अनेक प्रश्न भी आते होंगे। सबसे बड़ा प्रश्न है देहदान क्यों? मृत देह का क्या उपयोग है? क्या अंगों को बेच दिया जाता है? क्या देहदान से धन की प्राप्ति होगी, आदि-आदि। सही जानकारी के अभाव में और दुष्प्रचार के कारण कई भ्रांत धारणाएं भी समाज में अपना स्थान बना लेती हैं जो इस पुण्य कार्य में अवरोधक का काम करती है।

किसी व्यक्ति की स्वाभाविक मृत्यु के पश्चात सामान्यतः उसके नेत्रों (कार्निया) के अतिरिक्त शेष अंग किसी काम नहीं आते हैं। इसलिए इस प्रकार की सोच गलत है कि मृत्यु के पश्चात कोई अंगों को बेच सकता है। मृत देह मेडिकल कॉलेज में केवल शरीर रचना विज्ञान (anatomy) की पढ़ाई के काम आती है। जितने मेडिकल कॉलेज और विद्यार्थी हैं उनको देखते हुए पढ़ाई हेतु मृत देह, जिसे कैडेवर कहा जाता है, मिल नहीं पाती हैं। बिना इच्छुक दानदाताओं के यह संभव भी नहीं है। हमारी आनेवाली पीढ़ी के लिए योग्य चिकित्सक उपलब्ध हो सकें, इसके लिए देहदान आवश्यक है। नेत्रदान के मामले में विश्व में श्रीलंका का स्थान बहुत ऊपर है। अपनी सास्कृतिक पृष्ठभूमि और परोपकार की भावना के कारण वहां का बहुसंख्यक बौद्ध समाज नेत्रदान का संकल्प लेता है। जिसके कारण मृत व्यक्ति के दो नेत्रों से ऐसे दो लोगों के जीवन में प्रकाश फैल सकता है जो प्रकृति की सुंदरता और अपने प्रियजनों को न देख पाने के लिए अभिशप्त थे। यह कल्पना से भी परे है कि उनके मन में नेत्रदानी के प्रति कितना अधिक आभार और कृतज्ञता की भावना रहती होगी।

व्यक्ति के स्वस्थ और जीवित रहते हुए अंगदान के विकल्प सीमित हैं। सामान्यतः व्यक्ति की एक किडनी तथा उसके लिवर के अंश का ही प्रत्यारोपण होता है, जिसे ‘लिविंग अंगदान’ कह सकते हैं। इसके लिए अधिकांश निकट संबंधी ही सामने आते हैं। इसके अतिरिक्त अस्पताल में भर्ती, गंभीर रूप से बीमार अथवा दुर्घटनाग्रस्त ऐसे व्यक्ति, जिसको समस्त औपचारिकता पूरी करते हुए डॉक्टरों के पैनल के द्वारा ब्रेन डेड घोषित कर दिया गया हो, के अनेक अंग जैसे लिवर, ह्रदय, किडनी, फेफड़े, पैंक्रियास, उतक आदि उसके परिवार जनों की सहमति से ऐसे अनेक लोगों को प्रत्यारोपित किए जा सकते हैं, जिन्हें आवश्यकता है। यह कार्य एक निर्धारित समय सीमा में करना होता है, इसलिए प्राप्त अंगों के एक स्थान से दूसरे स्थान तक शीघ्र और निर्बाध परिवहन हेतु शहरों में “ग्रीन कॉरिडोर” बनाए जाने की खबरें अक्सर आती रहती हैं।

अंगदान के परिप्रेक्ष्य में कुछ आंकड़ों पर ध्यान दिया जाना उपयुक्त होगा। अमेरिका में ‘ऑर्गन डोनेशन’ करने वालों की संख्या प्रति दस लाख लोगों पर 41 है, फ्रांस में 24.7 है, ब्रिटेन में 19.8 है, ब्राजील में 13.8 है, जर्मनी में 11.1 है, चीन में 3.63 और भारत में यह संख्या मात्र 0.4 है। अपने देश में प्रत्येक वर्ष लगभग एक लाख नेत्रों की आवश्यकता होती है और उपलब्धता लगभग एक चौथाई ही है। ये तथ्य ही इस बात को रेखांकित करते हैं कि अपने देश में देहदान और अंगदान की जागरूकता लाने और प्रेरित किए जाने की कितनी अधिक आवश्यकता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री मोदी जी भी ‘मन की बात’ कार्यक्रम में इस विषय को उठा चुके हैं। “वर्ल्ड ऑर्गनाइजेशन ऑफ रिलीजन एण्ड नॉलेज” अंगदान को लेकर मुसलमानों के अंदर फैली भ्रांतियों को तोड़ रहा है। ऐसा समाचार है कि इसके कारण मुस्लिम समाज के 400 लोगों ने कुछ समय पूर्व अंगदान का संकल्प लिया है।

महर्षि दधीचि ने देवासुर संग्राम में देवताओं की सहायता हेतु देह त्याग कर अपनी हड्डियां स्वेच्छा से वज्र निर्माण हेतु दे दी थी। उन्हीं दधीचि से प्रेरणा लेते हुए उत्तराखंड में (फरवरी 2022 से) तथा देश में अनेक स्थानों पर ‘दधीचि देहदान समिति’ तथा अन्य सामाजिक संगठन इस क्षेत्र में कार्य कर रहे हैं। देहदान की सहमति देने में मुख्य समस्या जनमानस में हिचकिचाहट या मानसिक अवरोध की है।

जीवित रहते हुए मनुष्य सत्कर्म करे और मृत्यु के पश्चात भी देह मानवता के काम आ सके, इससे अच्छा और क्या हो सकता है। हमारे यहां तो माना ही जाता है कि शरीर नश्वर है और आत्मा अमर है। इसलिए- “जीवित रहते रक्तदान, मृत्यु उपरांत देहदान”।

( हिमालय हुंकार से साभार)