‘‘ कविता’’
"अजनबी ही सही पर अब ‘दधीचि कुटुम्ब’ हैं हम सब देहदानी
ईश्वरप्रदत्त ये अंग मैंने भी मरणोपरान्त दान करने की ठानी"
अंगदानी के प्रति Recepient की कृतज्ञता…
तुम्हारा इक अंश अब मेरे भीतर जीता है
अजनबी हुआ करते थे हम पर अब अपना इक रिश्ता है
जो खून का था तो नहीं अब खून का है परन्तु
थे जुदा पहले पर अब कितने एक हैं मैं और तू
अजनबी ही सही पर अब ‘दधीचि कुटुम्ब’ हैं हम सब देहदानी
ईश्वरप्रदत्त ये अंग मैंने भी मरणोपरान्त दान करने की ठानी
ऐ अजनबी दोस्त अब नहीं है तू
पर ज़िन्दा है अब भी तू
मेरे अन्दर बन के मेरा अपना
जी रहा है जो मेरे भीतर वो जीता रहे मेरे बाद भी
किसी के अन्दर. . . मेरा भी यही सपना
मेरे अंग मेरी देह भी दे सकें ज़रूरतमंदों को राहत
हर सकूं दुखियों की पीड़ा अब मेरी भी यह चाहत
धड़के मेरा दिल ज़िंदगी बन के किसी में दोबारा
जैसे तूने मुझे अनन्त दर्द भरी जिन्दगी से उबारा।
हां तेरी तरह मेरी भी यह वसीयत
मेरे अंगों से मिले औरों को जीने की मुहलत
दे देना मेरी आंखें . . .जिनकी आंखें तो हैं पर नहीं देख पातीं
सूरज का उगना, पंछियों का चहकना, फूलों का महकना
बदल देना मेरे दिल से, जिससे धमनियों में खून की जगह दर्द बहता है
भूल जाता है जो ठीक से धड़कना
दे देना मेरे गुर्दे जिसके गुर्दे
हफ्ते दर हफ्ते डायलिसेस के लिए देते हों धरना
दे देना मेरे फेफड़े
जिसके फेफड़े भूल गए हों देह में ठीक से सांसें भरना
मेरा लिवर, यकृत, मेरी हड्डियां, बोन मैरो, मांसपेशियां, मेरे ऊत्तक, मेरे केश
रब ने दी अनमोल नेमते मुझे जो बिन मांगी
बांट देना सभी ज़रूरतमंदों में है ख्वाहिश आखिरी मेरे मन की
और हां मेरे अपनो गर आपको मुझसे प्रेम है
और आप चाहते हैं उसे जताना
पूरी कर देना मेरी आखिरी ख्वाहिश और.... . . .
आप खुद भी ऐसी वसीयत करते जाना।
रचयिता :डॉ. इंदू गुप्ता