अंतिम संस्कार और पर्यावरण
हमारे ग्रह पृथ्वी का दो तिहाई भाग समुद्र है| बाकी एक तिहाई धरा में पर्वत, नदियाँ, जंगलों, यातायात मार्ग आदि के साथ कृषि भूमि व रहने के लिए घर हैं| समय के साथ दुनिया में जनसँख्या बढ़ी है और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन भी उसी तेज़ी से बढ़ा है| सभी का पेट भरने के लिए अनाज, सब्जी आदि की पैदावार बढ़ाना और रहने के लिए ज्यादा घर बनाना आवश्यक होता गया| इसके लिए जंगलों का काटना समय के साथ बढ़ता ही गया है| इससे पर्यावरण को भी बहुत क्षति हुई है| यातायात के बढ़ते साधनों और औद्योगीकरण से कार्बन उत्सर्जन बहुत ऊंचे स्तर पर पहुँच चुका है| इस कारण वैश्विक तापमान वृद्धि अब धीरे धीरे विकराल रूप लेती जा रही है| ग्लेशियर पिघल रहे हैं और सभी जगह मौसम परिवर्तन तेज़ी से हो रहा है| बिगड़ते पर्यावरण का हमारे स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर हो रहा है जिससे हमारी चिकित्सा सुविधाओं की आवश्यकताएँ भी बढ़ती जा रही हैं| अतः हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए पर्यावरण सुरक्षा अब हमारा ऐसा दायित्व है जिसे हम ज़रा भी नहीं टाल सकते| इसके लिए वनों का संरक्षण और विस्तार सबसे अहम् ज़रुरत है| पर बढती जनसंख्या की भोजन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कृषि और आवास के लिए पर्याप्त भूमि अभी ही नहीं है|
भारत विश्व का सातवाँ सबसे बड़ा देश है जिसका क्षेत्रफल विश्व का 2.4% है और जंगल हमारे क्षेत्रफल के लगभग 20% क्षेत्र में ही रह गए हैं| जनसँख्या के अनुसार हमारा देश विश्व में दूसरे नंबर पर है जबकि कार्बन उत्सर्जन में हम विश्व में चौथे स्थान पर हैं| विश्व में सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में से आधे भारत के हैं| वाहनों की बढ़ती संख्या पर कोई अंकुश लगाना कठिन है| उद्योगीकरण आज देश की ऐसी आवश्यकता है जिसे और अधिक तेज़ी बढ़ाना ही रोज़गार की विकराल समस्या का हल है| ऐसे में पर्यावरण प्रदूषण की समस्या हमारे लिए सर्वाधिक विकराल है और इसके निदान के लिए ज्यादा वृक्ष लगाने के साथ हमें और नए विकल्प भी तलाशने होंगे|
अंतिम संस्कार की विधियाँ
जीवन का अकेला शाश्वत सत्य मृत्यु है| मृत्यु के बाद मानव देह को अनंत में विलीन करने के अलग अलग तरीके अलग अलग धर्मों में हैं| मुसलमानों और ईसाइयों में मृत देह को दफ़नाने की रीत है, पारसियों में देह को पक्षियों के भोजन के रूप में दिया जाता है, और हिन्दुओं में मृत देह को जलाने की परंपरा है| बुद्ध धर्म में स्थानीय पुरातन परम्पराओं के अनुसार इन तीनो रीतियों में से किसी एक के द्वारा अंतिम संस्कार किया जाता है| आइये देखते हैं कि क्या इन तरीकों में बदलाव करके पर्यावरण और मानव कल्याण के लिए कुछ किया जा सकता है|
ईसाई धर्म लगभग २१०० वर्ष पुराना है जबकि मुस्लिम धर्म लगभग १४०० सौ वर्ष पुराना| इनमें शव को दफनाया जाता है| इतने लम्बे समय में अनगिनत शव दफनाये गए हैं| पहले सिर्फ ज़मीन में दफना दिया जाता था और वह समय के साथ मिट्टी में मिल जाता था| समय के साथ बदलाव आया, दफनाई गयी देह पर पत्थर, सीमेंट, कंक्रीट आदि से कब्र बनायीं जाने लगी| इन वस्तुओं को गलकर ज़मीन में मिल जाने में बहुत ज्यादा समय लगता है| अगर एक कब्र के लिए सिर्फ 20 वर्ग फुट की ही ज़रुरत माने तो भी शायद पूरी पृथ्वी कम पड़ जायेगी| यह सिलसिला तो अभी सदियों तक और चलना है| तो इतनी जगह कहाँ है?
हिन्दुओं में मृत देह को जलाने के लिए लकड़ी इस्तेमाल में लायी जाती है और लकड़ी पेड़ों से मिलती है| पहले जंगलों से सिर्फ सूखी लकड़ियाँ ही बीन कर इस्तेमाल की जाती थीं| लकड़ी की बढ़ती ज़रूरतों के कारण पेड़ों को काटा जाने लगा| पेड़ कटने से वायु का शुद्धिकरण कम होता जाता है, वहीँ पर जलाने से कार्बन उत्सर्जन बढ़ता जाता है| यानि दो तरह से पर्यावरण को क्षति होती है| शव को पशु-पक्षियों का भोजन बनने देने में शव के सड़ने से निकलने वाली गैसें वातावरण दूषित करती हैं|
अंतिम संस्कार की वैकल्पिक विधियाँ
जापान में दफ़नाने के लिए जगह बहुत ऊंची कीमत पर ही एक निश्चित समयावधि के लिए सरकार द्वारा उपलब्ध कराई जाती है और उस स्थान को समयावधि के बाद किसी दूसरे शव को दफ़नाने के लिए किराये पर दिया जाता है|
इटली में इस समस्या के समाधान के लिए अंडाकार जैविक पोड (Capsula Mundi) आलू और स्टार्च आदि से बनाया गया है| मृत देह को इस पोड में रखकर दफना देते हैं और उस स्थान पर एक पौधा लगा देते हैं| गलता हुआ शव और पोड पौधे को पोषण देकर वृक्ष बनाते हैं जो कि पर्यावरण की रक्षा करने के साथ मृतात्मा की यादगार के रूप में फलित रहता है|
हमारे देश में प्रतिदिन लगभग 70 हज़ार लोगों की मृत्यु होती है| इनमे से लगभग 50 हज़ार हिन्दू होते हैं| अगर एक शव को जलाने के लिए 3 क्विंटल लकड़ी लगे तो अंदाज़ लगाइए की कितने वृक्ष सिर्फ इसी काम के लिए रोज़ काटे जाते हैं| जलाने के लिए लकड़ी के स्थान पर विद्युत शव दाह गृह प्रचलन में आ रहे हैं पर इनकी संख्या और स्वीकार्यता बहुत कम है|
ये वैकल्पिक विधियाँ पर्यावरण के अनुकूल तो हो सकती हैं पर क्या मृत देह को मानव समाज के लिए और ज्यादा उपयोगी किया जा सकता है? आइये देखते हैं|
देह - अंग दान
चिकित्सा विज्ञान ने अब बहुत विकास कर लिया है और मृत देह के कई अंग प्रत्यारोपित किये जा सकते हैं| एक व्यक्ति के नेत्रदान से ८ तक कॉर्निया अन्धता पीड़ितों को नेत्र ज्योति मिल सकती है| एक अनुमान के अनुसार अगर भारत में सभी नेत्रदान करें तो मात्र ११ दिनों में देश को कॉर्नियल अन्धता से मुक्त किया जा सकता है| त्वचा, हड्डियां, आँखें, हृदय, किडनी, लिवर, पैंक्रियास, आदि बहुत से अंग प्रत्यारोपित किये जा सकते हैं| इनमें पहले तीन हर तरह से हुई मृत्यु में जबकि बाकि अंग सिर्फ मस्तिष्क मृत्यु के केस में ही प्रत्यारोपित किये जा सकते हैं| जितने लोगों को अंग प्रत्यारोपण की आवश्यकता है उसका एक छोटा अंश ही अंगदान से मिल पाता है और रोगियों की प्रतीक्षा सूची बढ़ती जा रही है|
चिकित्सा विज्ञान की पढाई के लिए मानव देह की संरचना को पढ़ना, समझना अत्यावश्यक है| ४-६ विद्यार्थियों के लिए एक मृत देह (कैडेवर) की ज़रुरत है ताकि वे संचरना को अच्छे से समझ सकें| पर वास्तविकता में ४०-५० विद्यार्थियों के लिए ही एक देह उपलब्ध हो पाती है| चिकित्सा विज्ञान में अनुसंधान के लिए भी मृत देहों की आवश्यकता रहती है| निपुण शल्य चिकित्सक भी किसी जटिल शल्यक्रिया से पहले कई बार मृत देह पर दोबारा संरचना का गहन अध्ययन करते हैं|
बढ़ती स्वास्थ्य समस्याओं के निदान के लिए हमें निपुण डॉक्टर चाहियें| अपने बच्चों को हम डॉक्टर बनने के लिए प्रेरित करते हैं| सिर्फ उनकी फीस भरकर हम समझते हैं कि कॉलेज पढाई के लिए ज़रूरी बाकि सभी चीज़ों का इंतजाम करें| मैडिकल कॉलेज बाज़ार से और सभी उपकरण आदि तो खरीद सकते हैं पर मानव शरीर संरचना पढ़ाने के लिए मृत देह नहीं| अतः ज़रुरत के अनुपात में मृत देह-अंगों की उपलब्धता बहुत कम रहती है जिसे बढाने की ज़रुरत है|
निष्कर्ष
सभी धर्म अच्छे जीवन मूल्यों और परोपकार की शिक्षा देते हैं| हर धर्म में स्थानीय परिवेश के अनुसार नयी मान्यताएं लागू होती हैं| समय के साथ वक़्त की ज़रुरत और बदलते परिवेश के अनुसार इनमे बदलाव भी आते रहते हैं| इन्ही कारणों से हर धर्म में नए समुदायों का जन्म कुछ भिन्न मान्यताओं के साथ होता है| केवल मानव ही इतना समझदार है जो सामयिक आवश्यकताओं के अनुरूप बदलाव स्वीकार करने में सक्षम है| वर्तमान में अंतिम संस्कार के तरीकों में बदलाव भी एक अहम् ज़रुरत है| आज के समय में मानसिक कुंठाओं और धार्मिक रूढ़ियों से ऊपर उठकर पर्यावरण की रक्षा, मानव समाज के कल्याण और आने वाली पीढ़ियों के सुन्दर स्वस्थ जीवन के लिए देह-अंग दान ही सर्वोत्तम/श्रेयस्कर है|
राजीव गोयल