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उनकी इच्छा का हमने सम्मान किया

देहदान या अंगदान की इच्छा एक तपस्या है। दधीचि देहदान समीति की ओर से लगातार इस पर पिछले 25 वर्षों से काम हो रहा है। यह एक ऐसी यात्रा है, जिसमें लगातार लोग जुड़ते जा रहे हैं। देहदान या अंगदान की इसी यात्रा से जुड़े कुछ लोगों के अनुभव, जो हमारा उत्साह बढ़ाते हैं।

For the future of humanity

Shri Hira Nand Khattar (1919 -2015) was guided by the fundamental principles of Arya Samaj. “Khattar Saab” was also a source of strength and inspiration to his immediate and extended family. 

Khattar Saab spent a large part of his later life in meditative and reflective states. It was then that he took a conscious decision that he would donate his mortal remains for the cause of medical research. He contacted Dadhichi Dehdan Samiti to share this resolve.

His immediate family, was also informed as the execution had to be done by them once he passes away.

When the day arrived, many members in the family – invaded by the ghosts of ‘tradition’, ‘beliefs’, ‘dogmas’, and ‘blind superstition’, took exception to this - in their clouded view, this would be “inappropriate – what about ‘pind daan?” 

Seniors of Arya Samaj explained that this was one of the most magnanimous gestures of ‘Khattar Saab’ and that it should be respected. To pacify those objecting, the priests suggested that we do a token ‘pind daan’ by saving some parts such as nails and hair for the traditional rites. This satisfied the skeptics and we gracefully completed his wish of donating his body for the future of humanity.

We urge all of you to consider this option. All of us benefit from the advances of medical research. Research needs tools and materials. Your gesture of donating your mortal body will benefit the future of humankind.

Indu Khatter

Something for future generations

Our family pledged our body and organs with Dadhichi on 11th July 1999. Little did I know that within one and a half year, I would have to execute the pledge of my elder sister. That time body donation was not so common, so there were challenges in getting death certificate. Her eyes were also donated. My mother passed away in 2015 and father in 2018 and as per their wishes I donated their bodies in the same institute. For them any other donation was not visible due to their age.

As our family was committed there was no issue of any resistance. However, at the time when a dear one departs we go through all the formalities in a mechanical manner. However, let's when the void is felt the only consolation is that we have contributed to the cause of environment, medical science and did something for future generations.

We did not have any traditional customs after the departure of our family members. We donated to reputed societies doing welfare work in their memory. As my mother had love for nature, after her departure we planted 85 trees in her memory.

I appreciate dadhichi for being active and well organised for the such big cause of humanity.

Upendra Maheshwari

पिताजी की इच्छा का सम्मान

संभवतया नानाजी देशमुख जी से हमारे पिताजी को देहदान की प्रेरणा मिली। तत्पश्चात उनके परम मित्रों में से एक यादव राव देशमुख द्वारा देहदान ने उनकी इच्छा को और प्रबल किया। इस विषय के बारे में पता तो था, पर अपने परिवार में ऐसा निर्णय, ऐसा विचार पहले किसी के मन में नहीं आया था।

एक दिन पिताजी ने अपना विचार परिवार में साझा किया तो घर में एक असमंजस की स्थिति पैदा हो गई। दाह संस्कार तो सनातन पद्धति के 16 संस्कारों में से एक है, देहदान होने से मुक्ति कैसे होगी? माताजी ने प्रारम्भ में विरोध स्पष्ट कर दिया। पिताजी ने अपने दोनो बेटों व घर में अन्य सबों से जिक्र छेड़ा। परंतु किसी ने स्पष्ट रूप से कुछ नही कहा। एक पंडित जी से भी मां ने चर्चा की। सभी के मन में प्रश्न बने हुए थे। अंततः आलोक भाई साहब से पिताजी ने विस्तृत चर्चा कर अपना संकल्प ले लिया। तत्पश्चात पिताजी ने परिवार में सबसे चर्चा की। कुछ समय लगा, कुछ चर्चा हुई फिर उनके निर्णय को सभी ने स्वीकार भी किया। अपने संकल्प के क्रियान्वन्य के प्रति पिताजी सदैव चिंतित रहते थे कि उसका निर्वाह कैसे होगा? उन्हें लगता था कि कहीं उनके देहावसान के पश्चात परिवार में कोई विरोध न उत्पन्न हो जाए। एक उहापोह यह भी था कि वह एक लंबे समय से दिल्ली से दूर भिवाड़ी में रह रहे थे तो अगर उनका देहावसान भिवाड़ी में हुआ तो देहदान का संकल्प कैसे पूरा होगा? पर जब संकल्प अच्छे कार्य व शुद्ध मन से किया जाए तो ईश्वर स्वयं उसमे सहयोगी होते हैं और पिताजी के देहांत के समय परस्थितियां इस प्रकार बनी कि देहदान का संकल्प ठीक प्रकार से पूरा हो सका। कुटुंब के अन्य कुछ सदस्यों का कुछ विरोध या असमंजस भी देहदान के समय सामने आया, लेकिन मां के द्वारा पिताजी के संकल्प को पूरा करने के अटल निर्णय से सारे प्रश्न थम गए।

हम सभी परिवारजन, आज प्रसन्न हैं कि भली-भांति समझते हुए यह निर्णय हुआ था और उस निर्णय का पिताजी की इच्छानुसार निर्विघ्न क्रियान्वयन भी हो पाया।

रोहित अग्रवाल

Without any hesitation, I gave a consent

I am humbled and honored to be associated with the great cause of Organ and Body Donation. I would like to share my emotional journey. When my lifeline Sh. Arvind Chary met with an accident in October 1997, I took him to AIMS. Where he was supposed to be gets operated and Rod was supposed to be inserted for Slip disc. Unfortunately he didn't respond orally hence the surgery was canceled. I was the only person near him and was in a dilemma about his health. He was then taken to ICU where his brain injury got noticed. And later he went into a Coma stage. I was having two small kids aged 6 year and 2 year at that time. No one to guide me about brain death. Rather without the death being declared, AIMS Counsellor requested me about the Organ donation. Without any hesitation , I gave a consent. His heart was transplanted to Mr.Pradeep Gupta of Bhopal. And Liver was transplanted to a 23 years young girl Savitri.

I had a beautiful relationship with Mr. Pradeep Gupta. I was invited for the marriage of his younger brother in Bhopal. I attended the marriage along with my kids. It is awesome to hear the heart beats of my Husband, which was a beautiful experience.

My father in law V. S. Chary fell in Chennai during Covid period, we somehow bring him to Delhi by air. And he went through the surgery for his hip joint and came home. Was a very tough time for us as due to Covid things were not smooth. He demised on August13 th of 2020. We decided for his body donation. Due to Covid we waited for almost five days for the body donation to be completed. However by God's grace the process of Body Donation was completed. Emotionally we were in a dilemma for those days whether Body Donation will be completed or not. We thou started the ritual of thirteen days of his demise.

Every one of us should be associated with this noble cause which will help humanity.

Chitra Chari

आसान नहीं था रुढ़ी को तोड़ना

जीवन साथी का अचानक साथ छोड़ देना मेरे लिए अविश्वसनीय एवं कष्टदायक था। तारीख थी, 23 दिसंबर 2018। यह दिन मेरे लिए असहनीय दुख लेकर आया।

कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या हुआ और क्या करूं। मेरे जीवन साथी की सदैव इच्छा रही कि उनकी देह को दान कर दिया जाए, ताकि बच्चे कुछ सीख सके। पारंपरिक ढंग से अंतिम संस्कार करने की रुढ़ी को तोड़ना और अपने मन को समझाना सहज नहीं था। परंतु डॉ. साहब की अंतिम इच्छा का सम्मान करते हुए दृढ़ता के साथ दधीचि देहदान समिति की मदद से उनकी अंतिम इच्छा पूर्ण की गई। मेरे दोनों बच्चों एवं परिवार के अन्य सदस्यों ने भी इसमें सहयोग दिया और उनकी देह को लोक कल्याण हेतु समर्पित कर दिया।

आज मन संतुष्ट होता है यह सोच कर कि कई बच्चों ने उनके पार्थिव देह पर प्रयोग या अध्ययन कर कई गुत्थियां सुलझाईं होंगी। हमारे इस निर्णय से हमारे परिवार के कई सदस्यों एवं मित्रों को भी प्रेरणा मिली है।

मधु मेहता

मुझे आज भी स्मरण है !

पूजनीया माताजी के स्वर्गवास का क्षण (17 दिसंबर 2011 ) मुझे आज भी स्मरण हैI परिवार में हर तरफ खामोशी, उदासी तथा अत्यंत दुःख का वातावरण। भारतीय संस्कृति एवं कर्म कांड के अनुसार बात उनके अंतिम संस्कार की आई। अक्सर माताजी घर में "दधीचि देहदान योजना" का जिक्र कर अपनी प्रबल इच्छा व्यक्त किया करती थी। उस क्षण उनकी इसी इच्छा को ध्यान में रखते हुए परिवार ने उनके पार्थिव शरीर को "दधीचि देहदान समिति" को सौंपने तथा उनके नेत्र- दान भी करने का निर्णय लिया। हालांकि पिताजी ने इसकी सहमति दे दी और बस हम सब ने भी उस पल में कुछ कहना और अपनी भावनाएं व्यक्त करना तथाउचित नहीं समझा। परन्तु एक बात निश्चित है कि इस प्रकार के देहदान के बाद एक तरफ लगा कि माताजी कि पुण्य आत्मा को संतुष्टि मिली होगी। वहीं दूसरी ओर हम लोगों ने खुद को 'गौरान्वित' अनुभव किया। बहुत ही भव्य रूप में पूजनीया माताजी के पार्थिव शरीर को सामाजिक भव्य यात्रा के साथ ले जाकर मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज को विधिवत सौंप दिया। वास्तव में यह 'दधीचि देहदान समिति' की ये बातें बहुत ही मानवीय तथा परोपकारी कदम है देश तथा विश्व के हर व्यक्ति को इसका संकल्प लेकर जीवन के बाद भी अपना योगदान मानवता के हित के लिए होना चाहिए।

मैं बचपन से ही परिवार के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद् आदि संस्थाओं से जुड़े रहने के कारण भारतीय संस्कृति के मूल- भूत पक्षों पर कहीं न कहीं ज्यादा महत्त्व दिया करता हूं। मन के एक कोने में एक व्यथा थी कि "भाई, इस प्रकार के देह- दान होने से माताजी के जो अंतिम संस्कार ( सोलह संस्कारों में से एक संस्कार) है वह तो बिलकुल अधूरा रह जायेगा? " इस प्रकार कि व्यथा तथा ग्लानि मन में रह रही थी। इतना सब कुछ मन में चल रहा था कि उसका आज भी स्मरण आ जाता है। बस फिर क्या था- जैसा कुछ उचित लगा बड़े भाई (बुआजी के बेटे- जो आज हमसे दूर स्वर्ग चले गए हैं) के मार्गदर्शन एवं सहयोग से माताजी के कुछ व्यक्तिगत वस्तुओं (नाख़ून, नकली दांत आदि) को रखकर हरिद्वार में उनके यथोचित संस्कार एवं अन्य कर्म- कांड भी किए। मन बहुत ही अस्थिर था। बिलकुल भी मन शत- प्रतिशत इस "देहदान" के लिये तैयार नहीं थाI पिताजी के सम्मान तथा घर की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए कुछ करना या कुछ कहना भी उचित नहीं समझा। भाई साहब ने हरिद्वार साथ चल कर (पिताजी भी साथ थे) विधिवत सभी अनुष्ठान तथा कर्म कांड करवाए। दिल से सही बात बोलूं तो तब जाकर मन शांत हुआ।

वास्तव में हमारे हिन्दू पौराणिक ग्रंथों में महर्षि दधीचि के 'देहदान' का उल्लेख आता हैI मानव शरीर पंचतत्व से बना है और अंत में पंचतत्व में ही लीन हो जाता हैI अगर मनुष्य के नेत्र तथा शरीर किसी भी अन्य प्राणी के प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से काम आ जाये तो मैं मानता हूं कि उसका मनुष्य जन्म सार्थक रहता है। "इदं न ममं" "तेरा तुझको अर्पण " प्रत्यक्ष रूप से चरितार्थ होते दिख जाता है” I

डॉ सर्वेश सतीजा

समाज के लिए कुछ करने का गर्व

महेंद्र जी की मृत्यु का समाचार पाते ही बुद्धि और आत्मा शून्य हो गई। कुछ सोच नहीं पा रहे थे। फिर दाह संस्कार का निर्णय हो गया। तभी मेरे पास महाराज यतींद्रानंद जी का फोन आया और उन्होंने कहा कि मैं आपकी मन:स्थिति को समझ रहा हूं, पर महेंद्र जी के देहदान के बारे में सोचिए। मुझे पल भर भी नहीं लगा और मैंने निश्चय किया कि हम देहदान व नेत्रदान करेंगे। मैंने यह सूचना चंदोलिया जी को और अपने जेठ रविंद्र जी को दी। सभी ने सहमति जताई और माननीय श्री आलोक जी के संपर्क से सभी आगे के निर्णय और कार्य संपूर्ण होते चले गए।

देहदान के निर्णय के बाद मन में कहीं एक संतुष्टि थी कि श्री महेंद्र जी की अभिलाषा व व्यक्तित्व के अनुसार उनके देह का समर्पण भी एक उचित निर्णय रहा। प्रेरणा सभा में बहुत से व्यक्तियों ने देहदान व नेत्रदान के बारे में जानकारियां ली। अभी भी मुझसे इस संदर्भ में बहुत लोग पूछते और जानकारी लेते हैं। मुझे गर्व होता है कि मैं समाज के लिए इस उपयोगी कार्य में सहायक बन रही हूं।

कविता गुप्ता

पिताजी की इच्छा का पालन किया

मेरे पिताजी की हार्दिक इच्छा थी कि उनकी आंखें दान की जाए। बड़े बेटे का देहांत हो जाने के बाद वे बहुत परेशान रहने लगे थे। मेरी माता जी भी बीमार रहने लगी और फिर उन्हें ब्रेन ट्यूमर हो गया। मेरी माता जी का दिल्ली में एम्स से इलाज चल रहा था। पिताजी उनके साथ ही अस्पताल में रहते थे। इलाज के दौरान सर्जरी होने पर माताजी की मृत्यु हो गई, जिससे पिताजी अकेले रह गए और बाकी घर वालों के कहने से माताजी के पार्थिव शरीर अपने पैतृक गांव उत्तराखंड ले गए। तभी से पिताजी को आत्मग्लानि थी कि मैंने अस्पताल में होते हुए भी उनका शरीर दान क्यों नहीं किया? उन्होंने मन में अपने संकल्प ले लिया कि जब भी उनकी मृत्यु होगी, उनका शरीर दान किया जाएगा। मैंने बड़ी बेटी होने के नाते उनको वायदा किया कि आप जो भी कहोगे हम वही करेंगे। छोटे भाई को यह जानकारी नहीं थी कि मरने के बाद शरीर भी दान हो जाता है। कई तरह के वाद-विवाद भी हुए।

फिर भी मैंने अपने पिताजी की इच्छा का पालन किया। ईश्वर मेरे स्व. पिताजी की आत्मा को शांति प्रदान करें। दधीचि देहदान समिति का सहयोग मिला और मैं इस काम को कर पाई। यह एक सुखद संयोग रहा।

मंजू बिष्ट

मानवता के हित के लिए

"चलो दधिचि पथ पर, देह समर्पण कर दें।
अंग अंग को मानवता के, लिए हम अर्पण कर दें...।"

हमारे पिताजी श्री गोपाल कृष्ण अरोड़ा समाज के अनेक कार्यों के साथ जुड़े होने के साथ-साथ एक कवि भी थे। उनका निर्णय था कि मरणोपरांत मेरी देहदान की जाए, हमारी मां श्रीमती शशि अरोड़ा और हम तीनों बेटी दामाद के लिए कष्टदायक और विषम कार्य था। उनके शब्द थे, "इस माटी से बने घड़े से, प्यासे को मिल सकता पानी।"

उनके मरणोपरांत जब उनकी इच्छा परिवार ने दधिचि देहदान समिति के सहयोग से पूरी की, तो मन में एक संतोष था कि उन्होंने एक ऐसा कार्य हमें सौंपा जो मानवता के हित के लिए था।

आरती , दीप्ति और पूजा

इससे बड़ा पुण्य का कार्य और क्या ?

वर्ष 2001-02 में हमारे फूफाजी श्री सूरज प्रकाश मलिक का स्वर्गवास हो गया। उनके घर पर हम सब लोग एकत्रित हुए तो पता चला कि उन्होंने देहदान का संकल्प लिया हुआ था। यह देखकर मेरे पिताजी श्री राज ऋषि चड्ढा जी बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने तुरंत यह मन बना लिया कि वह भी देहदान करेंगे और जल्द ही उन्होंने देहदान का संकल्प ले लिया। सच पूछिए तो हमें उस समय यह अच्छा नहीं लगा था। परंतु हम उनके सामने कुछ बोल नहीं पाए। जुलाई 2016 में उनका स्वर्गवास हो गया और परिवार वालों ने उनके संकल्प का आदर किया। इसी बीच जुलाई 2014 में मुझे भी अपने पिताजी से प्रेरणा मिली और मैंने भी देहदान का संकल्प लिया। मुझे यह बताते हुए अत्यंत हर्ष हो रहा है कि मेरे बड़े भाई साहब, भाभी जी, मेरी दोनों बहनों व दोनों जीजा जी ने भी यह संकल्प लिया हुआ है।

हमारा सारा परिवार दधीचि देहदान समिति का सदैव ऋणी रहेगा, जिसने यह महान कार्य करने की प्रेरणा दी। मृत्यु के बाद भी शरीर यदि किसी के काम आता है तो इससे बड़ा पुण्य का कार्य कोई नहीं हो सकता।

आनंद भूषण चड्ढा

समाज के लिए कुछ तो करें

दिनांक 17 फरवरी, 2020 को जब एम्स की टीम के द्वारा अनिल भाई को ब्रेन स्टेम डेथ घोषित की गई, तो मन बहुत ज्यादा विचलित था और हम सभी परिवार जन इस घटना से बहुत दुखी थे, लेकिन जनकल्याण की भावना से मन में यह विचार आया कि अनिल भाई का अंगदान कुछ लोगों की जीवन रक्षा के लिए कर देना ही इस समय का सही निर्णय होगा। हम सभी परिवार जन बहुत संतुष्ट हैं कि यह दान सार्थक हुआ।

सन 2010 में हमारे देहदानी पिता श्री जयकिशन मित्तल की रसम पगड़ी में दधीचि देह दान समिति के संरक्षक श्रीमान आलोक कुमार जी का इस विषय पर वक्तव्य हमारे लिए बहुत ही प्रेरणादायक रहा था।उनके विचारों की अमिट छाप हमारे दिल में बस गई थी। उनके विचारों को ध्यान में रखते हुए हमने मां का नेत्रदान किया। उनकी मृत्यु कैंसर की वजह से हुई थी और उन्होंने अपनी देहदान करने का दायित्व मुझे दिया हुआ था। उस समय की स्थिति के अनुसार केवल नेत्रदान ही हो पाया।

हमारा पूरा परिवार बड़ी लगन व तत्परता से दधीचि देहदान के लिए समर्पित रहता है। मेरी बेटी और बेटा भी इस सोच से प्रभावित होकर संकल्प पत्र भर चुके हैं। हम सबकी सोच यही है कि "बहुत कुछ दिया है समाज ने हमें, क्यों न हम भी समाज के लिए कुछ कर जाएं।"

सुशील मित्तल

हर हाल में हो इच्छा का सम्मान

यह वर्ष दधीचि देहदान समिति का रजत जयंती वर्ष है। मेरी हार्दिक इच्छा है कि मैं अपने अनुभव के आधार पर आपसे कुछ अपने विचार साझा करुं।

सभी मनुष्य समाज कल्याण हेतु कुछ कार्य करने की इच्छा रखते हैं। इसी कारण हममें से कुछ व्यक्ति देहदान का संकल्प लेते हैं। इस कार्य की बारीकी को समझना बहुत जरूरी है। देहदान के लिए इच्छा पत्र पर हस्ताक्षर करना पहला हिस्सा है और मरणोपरांत आपकी देह समाज के कार्य में आ सके है यह दूसरा हिस्सा है। मेरे देखे अधिकांश लोग इच्छा पत्र पर हस्ताक्षर कर ही अपने को धन्य समझने लग जाते हैं। लेकिन देहदान की इच्छा को अपने सभी परिवार जनों को पूर्ण रूप से अवगत कराएं।

एक ऐसा व्यक्ति, जो अपने परिवार का सदस्य हो और आपसे आयु में कम हो, निश्चित करें जो आपकी इच्छा को आपके मरणोपरांत पूर्ण कर सके। देखा यह गया है कि परिवार में किसी अधिक आयु वाले सज्जन की मृत्यु पर सभी परिवार जन अत्यंत दुखी हो जाते हैं। इस अवस्था में वे छोटी से छोटी बात भी दूसरों की सलाह से ही करते हैं। ऐसे में परिवार के लोग दिवंगत आत्मा की इच्छा पूर्ति करने में असफल हो जाते हैं। देहदान के कार्य को पूर्ण करने के लिए परिवार जन को कुछ अधिक कार्य तो करना ही पड़ेगा। सभी बंधुओं को भी कुछ अधिक समय देना होगा। आवश्यक है कि देहदान की इच्छा रखने वाला अपने जीवनकाल में ही अपने एग्जीक्यूटर को इतना मानसिक रूप से सशक्त कर दे कि वह देहदान की घड़ी में सभी विपरीत सुझावों के बावजूद आपकी इच्छा की पूर्ति कर सके।

शशिकांत भंडारी

कुछ अच्छा करके तो देखें

आज समाज के बहुत गणमान्य लोग समाज सेवा के कार्यों से जुड़ना चाहते हैं। हम सभी किसी न किसी तरीके से अलग-अलग प्रकार से सेवा कार्य करते हैं -जैसे गरीबों का उत्थान, वृद्धों की सेवा, अंधे व्यक्तियों की सेवा, या गरीबों को शिक्षा संबंधी सेवा। परंतु मेरी दृष्टि में जो सेवा सबसे श्रेष्ठ है, वह है जीते जी तो समाज की सेवा करो ही, मरने के बाद भी अपनी देह का सदुपयोग करो। हम सभी कर सकते हैं। इससे बहुत से लोगों को न केवल जीवनदान मिलेगा, बल्कि मेडिकल साइंस को आगे बढ़ने में भी सहायता मिलेगी।

मेरे परिवार में मेरी सासू मां ने हमेशा हमसे एक ही बात कही कि मरने के बाद शरीर की एक मुट्ठी राख ही बननी है तो क्यों न ऐसा कार्य किया जाए जिससे कि इस शरीर का सदुपयोग हो सके। उन्होंने प्राण त्यागने से 10 वर्ष पहले ही अपनी इच्छा व्यक्त की थी कि मरने के बाद मेरी देह का दान कर दिया जाए। हमने भी उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए दधीचि देहदान समिति के माध्यम से उनकी देह को मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज को दान किया, जिससे हमारे मेडिकल छात्र छात्राओं को नई रिसर्च करने का अवसर मिले, कैंसर जैसी भयावह रोगों के कारणों का पता लगाकर उनके उपचार का पता लगाया जा सके।

जिस समय हमने अपनी माता जी का देहदान का किया, उस समय परिवार में बहुत रोष था, यह सब कुछ परिवार की समझ से परे था। सभी जगह लोग चर्चा कर रहे थे, परंतु मां की इच्छा व संकल्प का अक्षरश: पालन किया गया। बाद में जब परिवार ने समिति के कार्य और उद्देश्यों को समझा तो सभी ने अपने अपने देहदान का फॉर्म भर दिया। इसी प्रेरणा से घर से लगातार 7 दान हो चुके हैं। आज मेरा परिवार सभी के लिए प्रेरणा का केंद्र है। हमारी सोच है -" करो कुछ समाज सेवा, बड़ा नहीं तो छोटा ही सही। खुशी मिले किसी को हमारी वजह से फिर हो वह कोई भी कहीं भी। मित्रों समाज में मिली जो जिंदगी वह तो एक कर्ज है। समाज में करो कुछ अच्छा, यह भी एक फर्ज है।"

कविता अग्रवाल

मैं सौभाग्यशाली हूं कि मेरे घर से हुआ है देहदान

मैंने पुत्रवधू के रूप में श्री ईश्वरदास महाजन जी के तपस्वी जीवन को बहुत करीब से देखा है। वर्ष 2022 के मार्च माह में 99 वर्ष की आयु में शारीरिक रूप से पूरी तरह से स्वस्थ अवस्था में उन्होंने अपनी सांसारिक यात्रा पूरी की। आज से तकरीबन 10 वर्ष पूर्व उन्होंने देहदान का संकल्प लिया था। उन्होंने घर पर एक यज्ञ का आयोजन करके हम से बहुत ही संयम से अनुरोध किया कि हम सब परिवार जन उनके इस संकल्प का आदर करें एवं अपनी सहमति दें। उन्होंने हमें मानसिक रूप से तैयार होने के लिए 1 माह का समय दिया। हम सभी परिवार के सदस्यों ने स्वस्थ मन से उनकी इच्छा का आदर किया। पिताजी ने अपने जीवन में "वसुधैव कुटुंबकम" को ही अपना लक्ष्य बनाया और इसके लिए अपने जीवन में यथासंभव पूर्ण रूप से प्रयास किया। पिता जी वास्तव में मानव बनकर आए थे और मरणोपरांत देहदान का संकल्प लेकर महामानव बन गए। मैं स्वयं को सौभाग्यशाली मानती हूं कि मैं पिताजी के इस पुण्य कार्य में सहभागी बनी।

मीनाक्षी महाजन

पिताजी पर हमें गर्व है !

"तन समर्पित, मन समर्पित और यह जीवन समर्पित,
चाहता हूं देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूं।"

देहदानी मांगेराम गर्ग

मेरे पिताजी (बाबूजी) श्री मांगेराम गर्ग जी दधिचि देहदान समिति की स्थापना से ही श्री आलोक जी के साथ जुड़े हुए थे। अनेक राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक क्षेत्रों में कार्य करते हुए भी लगातार उनका जुड़ाव दधिचि देहदान समिति से भी बना रहता था। समिति द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में जाने के लिए वह सदैव तत्पर रहते थे। बाबूजी ने देहदान का संकल्प लिया हुआ था। उसी का परिणाम था कि वह परिवार के अन्य सदस्यों व समाज के अन्य लोगों को देहदान, नेत्रदान आदि के लिए प्रेरित करते रहते थे।

बाबूजी को मृत्यु से कुछ दिन पहले यह अहसास हो गया था कि उनका जाने का समय आ गया है। बाबूजी ने अपनी पुत्रवधु सुमेधा गर्ग को देहदान कार्ड देकर कहा कि मेरी मृत्यु उपरांत मेरी शरीर समाज के काम आये इसको सुनिश्चित करना। गर्ग परिवार ने बाबूजी के इच्छानुसार उनका शरीर देहदान समिति के श्री आलोक जी, श्री हर्ष मल्होत्रा के सानिध्य में भारतीय जनता पार्टी कार्यालय से लेडी हार्डिग हॉस्पीटल में शोध के विद्यार्थियों को सौंप दिया। बाबूजी के इस संकल्प से आज देहदानी मांगेराम गर्ग जी का परिवार गर्व महसूस करता है।

सतीश गर्ग

देह्दानी पापा-मम्मी को सादर नमन

जहां तक मुझे याद आता है कि हमारे पूज्य पापा जी को कभी भी अस्वस्थता के कारण किसी अस्पताल में भर्ती नहीं होना पड़ा था। लेकिन इस बार वह बिल्कुल निस्सहाय से हो रहे थे । डॉक्टर से इलाज निरंतर चल रहा था, पर पापा जी की अस्वस्थता निरंतर बनी हुई थी। उनको अंततः अस्पताल में भर्ती कराना ही पड़ा।

हम सब बारी-बारी अस्पताल में उनके पास रहते थे। उस दिन मुझे उनके पास रहना था। मैं अस्पताल गई तो पापा कमरे में नहीं थे। अनजाने भय से मन घबराने लगा, बताया गया कि उन्हें आईसीयू में शिफ्ट कर दिया गया है । वहां पहुंची तो डॉक्टर ने बताया कि पापा को वेंटिलेटर पर करना पड़ेगा । मैं निर्णय नहीं ले पाई। मैंने तुरंत आलोक भैया से पूछा तो वह भी घबरा गए। तय हुआ कि उन्हें वेंटिलेटर पर शिफ्ट कर दिया जाए। वेंटिलेटर लगने के बाद की स्थिति बहुत ही कष्टप्रद रही। सभी प्रभु से उनके शीघ्र स्वस्थ होने की प्रार्थना कर रहे थे। पर लगा भगवान ने उनके लिए कुछ और ही सोच रखा था। पापा जिंदगी की जंग हार गए और उन्होंने 26 अप्रैल को अपना शरीर छोड़ दिया, भगवान के पास चले गए। हम सब स्तब्ध और निशब्द हो गए। तभी मुझे सुनाई पड़ा कि अस्पताल से पापा का शरीर सीधे मेडिकल कॉलेज में भेजा जाएगा।

आदरणीय पापा ने दधीचि देहदान समिति के बनने के तुरंत बाद ही अपने शरीर के दान का संकल्प लिया था। आदरणीय भैया भी दुख के क्षण में भी बहुत हिम्मत से उनके शरीर के दान की प्रक्रिया में लग गए। कुछ पल के लिए मैं शून्य में चली गई थी। तभी राजीव मुझे आदरणीय पापा के अंतिम दर्शन कराने के लिए आगे ले गए । मुझे याद है कि जब पापा ने अपने शरीर के दान का संकल्प लिया था, हमें गर्व हुआ था कि पापा ने कितना महान कार्य किया है। पर अब वास्तव में जब यह समय आया तो कुछ घबराहट और कुछ श्रद्धा का मिला-जुला आभास हो रहा था। आगामी पीढ़ी के मेडिकल की पढ़ाई और रिसर्च के लिए शरीर का दान होना सच में बहुत उत्तम प्रक्रिया है। और मुझे अभिमान है कि मेरे माता-पिता दोनों ने मेडिकल की पढ़ाई और रिसर्च के लिए अपने अपने शरीर का दान किया है। भगवान से प्रार्थना है कि हमारे माता पिता जहां भी हो प्रभु उनको खुश रखें तथा उनका आशीर्वाद हम सब पर बना रहे।

अर्चना गोयल