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त्वचा (स्किन) का भी दान संभव

त्वचा मानव शरीर का एक ऐसा अभिन्न अंग है जो न केवल काया को आवरण प्रदान करती है बल्कि एक कवच की तरह उसे विभिन्न शारीरिक आपदाओं से भी बचाती है।

त्वचा किसी भी रंग की हो मानव शरीर के लिए उसकी ज़िम्मेदारी समान है। त्वचा शरीर को, उस पर पड़ने वाले गर्म और सर्द प्रभाव से बचाती है; रक्त, प्रोटीन तथा जल को बाहर निकलने से रोकने यानी प्रतिरोधक का महत्वपूर्ण काम करती है। त्वचा के हट जाने, नष्ट हो जाने या खंडित होने अथवा उसे चोट पहुंचने पर रक्त धमनियां (blood vessels) और मांसपेशियां (tissues) आवरणहीन हो जाते हैं, जिससे शरीर से पानी, खून और प्रोटीन निकलने लगते हैं। इन तीनों की हानि की वजह से न केवल रक्त धमनियों और मांसपेशियों की कार्यप्रणाली प्रभावित होती है, बल्कि अधिक समय तक त्वचा के अभाव में उनकी कोशिकाएं सूख जाती हैं और उनके कभी न ठीक होने का खतरा पैदा हो जाता है।

रक्त धमनियों और मांसपेशियों को सबसे ज़्यादा नुकसान किसी भी वजह से त्वचा के नष्ट हो जाने से होता है। इसका एक प्रमुख कारण किसी भी ज्वलनशील पदार्थ के सम्पर्क में आना है। ज्वलनशील पदार्थ जैसे आग, रासायनिक पदार्थ, खौलता या तेज़ गर्म पानी, पिघला हुआ या गर्म तारकोल, बिजली आदि। इन सभी से त्वचा की ऊपरी या भीतरी सभी पर्तांे को नुकसान पहुंच सकता है।
अन्य प्रमुख कारण हैं सड़क दुर्घटना के दौरान अत्यधिक दबाव पड़ना, शरीर का घिसट जाना, गोली लगना, विस्फोट इत्यादि। इनसे भी त्वचा को नुकसान पहुंचता है।

त्वचा हमारे शरीर का सर्वश्रेष्ठ कवच है। एक ऐसा आवरण या ड्रेसिंग है जिससे संक्रमण (इन्फेक्शन) को रोक कर दर्द का निवारण किया जा सकता है, अगर मरीज़ अस्पताल में भर्ती है तो इलाज का खर्च कम किया जा सकता है और मृत्युदर को भी कम किया जा सकता है।

मुख्य रूप से दो तरह की त्वचा का प्रत्यारोपण किया जाता है:-

  1. स्थाई त्वचा
    (permanent)। इसमें मरीज़ के शरीर के किसी भी हिस्से की त्वचा को लिया जाता है। इसे (autograft) कहते हैं।
  2. अस्थाई त्वचा
    यह कई तरह से प्राप्त की जा सकती है और तदनुसार प्रत्यारोपण प्रक्रिया के अलग-अलग नाम हैं, जो इस प्रकार है
    • निकट संबंधी की त्वचा जिसे (homograft) कहते हैं।
    • मृत व्यक्ति की दान में मिली त्वचा जिसे (cadaver skin) कहते हैं।
    • गाय/सुअर से प्राप्त त्चचा जिसे (xnograft) कहते हैं।

जलन एवं ट्राॅमा विभाग में, अगर मरीज़ निज त्वचा देने के काबिल नहीं होता है तो उपर्युक्त किसी भी तरह की अस्थाई त्वचा उपलब्ध कराई जाती है।

जिस तरह हृदय या अन्य अंगों को प्रत्यारोपण के लिए लिया जा सकता है उसी तरह त्चचा को भी लिया जा सकता है और उसे नियमानुसार उचित तापमान पर रख कर 21 दिन तक संभाला जा सकता है तथा दूसरी जगह भेजा (ट्रांस्पोर्ट) भी जा सकता है। आम इंसान को यह संशय नहीं होना चाहिए कि यदि उसकी टांगों के ऊपरी या अंदरूनी भाग से अथवा पीठ से प्रत्यारोपण के लिए त्वचा निकाली जाती है तो उसके शरीर में किसी भी प्रकार की विकलांगता या बदसूरती आ जाएगी। इस तरह से त्वचा निकाले जाने पर खून का रिसाव नहीं होता है और प्रत्यारोपण से मैच करने की भी ज़रूरत नहीं होती। प्रत्यारोपण की पूरी प्रक्रिया में 45 मिनट से कम समय लगता है।

प्रत्यारोपण के लिए अस्थाई त्वचा को मृत्यु के 6 घंटे के अंदर प्राप्त किया जाना आवश्यक है।

प्रत्यारोपण के लिए निम्नलिखित बीमारियों से ग्रस्त लोगों की त्चचा को नहीं लिया जा सकता है:-

  • एचआईवी रोग
  • हेपेटाइटिस रोग
  • त्वचा रोग
  • क्षय रोग
  • पीलिया
  • किसी भी तरह का संक्रमण (इन्फेक्शन)

मृत देह (केडेवर) की त्वचा प्राप्त करने के लिए निम्न कदम उठाए जाते हैं:-

  • सही मृत देह का चुनाव
  • त्वचा निकालना
  • प्रोसेस करना
  • स्टोर (संरक्षित) करना
  • विभिन्न स्थानों पर उपलब्ध कराना
  • विधिवत जानकारी रखना
  • प्रणाली का नियमानुसार ज़रूरी पालन
  • प्राप्त त्वचा को 5 वर्ष तक freeze storage में रखा जा सकता है।


स्टोर करने के लिए विद्युत चालित अलार्म फ्रीज़र (-86 डिग्री सेंटीग्रेट), कंट्रोल रेट फ्रीज़र (-60 डिग्री सेंटीग्रेट) इत्यादि का प्रयोग किया जाता है। प्राप्त त्वचा की नमी या गीलेपन को बनाए रखने के लिए क्रायोप्रोटेक्टेंट (cryoprotectant) का प्रयोग किया जाता है। क्रायोप्रोटेक्टेंट है ग्लिस्राॅल डिमिथाइलसल्फाॅक्साइड तरल नाइट्रोजन (glycerol demethylsulfoxide liquid nitrogen) जिसका तापमान माइनस 196 डिग्री सेंटिग्रेट होता है।

केडेवर स्किन से कई ऐसे मरीज़ों को बचाया जा सकता है जो निज त्वचा न मिल पाने के कारण मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। अंग दान के संदर्भ में त्वचा एक महत्वपूर्ण अंग है, विशेष रूप से भारत जैसे विकासशील एवं अन्य अभावग्रस्त देशों के लिए, जहां कृत्रिम (आर्टीफीशियल) त्वचा का प्रत्यारोपण अत्यधिक महंगा है और सरकारी अस्पतालों में इसकी उपलब्धि असम्भव है।

इस संबंध में न केवल डाॅक्टरों के लिए अधिक से अधिक जानकारी रखना ज़रूरी है बल्कि मीडिया एवं अन्य प्रचार माध्यमों के द्वारा जन-साधारण को भी अवगत और जागरूक कराना आवश्यक है।

डाॅ. सुषमा सागर
एडिशनल प्राफेसर
डिपार्टमेन्ट आॅफ सर्जिकल डिसिप्लीन्स
जेपीएन एपेक्स ट्राॅमा सेन्टर, एम्स
नई दिल्ली-110029