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संपादक के नाम पत्र

ई - पत्रिका से हमेशा प्रेरणा मिलती है !

प्रिय संपादिका जी,

सर्वप्रथम ई -जर्नल जनरल के अर्धशतक अंक की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं!

मुझे यह लिखते हुए अत्यंत हर्ष हो रहा है कि निष्काम कर्म की ओर अग्रसर अपनी संस्था का 50 वां अंक प्रकाशित होने जा रहा है। पहला अंक 2014 में शुरू हुआ और अब 2023 में यह 50 वां अंक... यह श्रृंखला मन में उपजे हुए एक विचार रूपी बीज से एक फलदायक वृक्ष बनने की यात्रा को प्रदर्शित करती है। यह विचार था, राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली को निरोगी व स्वस्थ बनाने का स्वप्न देखते हुए इस दिशा में कार्य करना।

मेरा सौभाग्य रहा कि सन 2017 में देहदानियों के 27वें उत्सव में जाने का मुझे मौका मिला और इस कार्यक्रम में पहले दिन ही कार्यकर्त्ता के रूप में अपने आप को जोड़ लिया । मुझे वहां पत्रिका के बारे में पता चला, जो हमारे जैसे कार्यकर्ता के लिए बेहद लाभप्रद था।

सच कहूं तो एक कुशल कार्यकर्ता बनने में इन ई जर्नल ने मेरे लिए एक गाइड का काम किया । जिनका उल्लेख में आवश्यक करना चाहूंगी जैसे..

  1. अंक 2 में अस्थि दान पर जानकारी देता लेख । एक व्यक्ति के अस्थि दान से 15 से 20 लोगों को लाभ पहुंच सकता है।
  2. अंक 6 में 'ब्रेन डेथ' पर डॉक्टर संदीप द्वारा सहज और सरल भाषा में लिखा लेख।
  3. अंक 7 में अंगदान व देहदान का अंतर
  4. अंक 43 में त्वचा दान की प्रक्रिया को सहज रूप में समझाया गया है।

ये लेख लोगों के प्रश्नों का उत्तर देने में मुझे लगातार मदद करते रहे।

ई- जर्नल के लेख तकनीकी पक्ष के साथ-साथ व्यावहारिक पक्ष को भी उजागर करते हैं।

विभिन्न धार्मिक गुरुओं के इंटरव्यू तो इसके प्राण हैं, जो कि जनमानस के मन में आई शंकाओं का समाधान तो करते ही हैं, साथ ही इस लोक व परलोक का मार्ग सुगम करते हैं । प्रत्येक धर्म में मानवता को ही सर्वोपरि बताया गया है।

गतिविधियां नामक कॉलम से समिति के कार्यकर्ताओं द्वारा दिल्ली व एनसीआर में होने वाली ढेर सारे कार्यक्रमों की जानकारी हमें मिलती है ।सभी अपने अपने क्षेत्र में कितनी लगन और परिश्रम से कार्य कर रहे हैं। एक कार्यकर्ता होने के नाते कई नए विचार तो मिलते ही हैं साथ ही उत्साह व जोश भी बना रहता है। सच कहें तो अपने क्षेत्र में लगातार कई तरह की गतिविधियां करने की प्रेरणा मिलती है।

हमारे ई जर्नल का अहम हिस्सा है,श्रद्धा सुमन । इस कॉलम के जरिए हम देह और अंग दानियों की के बारे में जानते हैं,उनकी पारिवारिक व सामाजिक पृष्ठभूमि तथा इस दान के प्रति उनकी भावना का भी पता चलता है, जिसे परिवार के सदस्य हमें बताते हुए आत्मिक संतोष के साथ-साथ गर्व भी महसूस करते हैं। वे इस पत्रिका को अधिक से अधिक अपने रिश्तेदारों व अन्य जानने वालों को शेयर करते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो दानी व्यक्ति इस पत्रिका के माध्यम से औरों के लिए प्रेरणा स्रोत बन जाता है।

अंत में ईश्वर से यही प्रार्थना कि इसका संपादन इसी प्रकार अनवरत चलता रहे तथा प्रत्येक अंक हमारे ज्ञान रूपी माला का मोती बन समाज को प्रेरित करता रहे।

शुभकामनाओं सहित !

पूनम मल्होत्रा
कार्यकारिणी सदस्य एवं मंडल संयोजिका

समिति के साथ प्रेरणादायी सफर


प्रिय संपादिका जी,

मैं सदा से ही रूढ़ियों के विरुद्ध रहा हूं। बहुत सी ऐसी परम्पराएं हैं, जो एक समय पर सही थीं, लेकिन समय के साथ अनावश्यक अथवा कहीं कहीं अनुपयुक्त भी हो गई हैं। जब जंगल बहुत थे और जनसंख्या कम, तो लकड़ियों से शरीर को जलाना ही पर्यावरण की दृष्टि से उचित था। आज जब विद्युत शवदाह की सुविधा उपलब्ध है, तो क्यों पेड़ कटवाना? क्यों धुएं से वातावरण को प्रदूषित करना? मैंने एक वसीयत लिखी कि मेरी मृत्यु के पश्चात मेरे शरीर को विद्युत शवदाह गृह में ही जलाया जाए! मैंने यह भी लिखा कि कम से कम लोगों को सूचना दी जाए, क्योंकि 13 दिन के शोक का आज समय नहीं है, विशेषकर शहरों के व्यस्त जीवन में। मैंने इस वसीयत को अपने पुत्र तथा सभी बंधू बांधवों को बता दिया, जिससे इसका क्रियान्वयन हो।

फिर मैंने सोचा कि शरीर को जलाना ही क्यों? आज विज्ञान ने इतनी प्रगति कर ली है कि मृत देह का भी उपयोग हो सकता है। इस विचार का तो मेरे परिवार में विरोध हुआ। मेरा पुत्र तो खुल कर कुछ नहीं बोला, लेकिन भाइयों ने सनातन परम्पराओं का हवाला दिया। तो मैंने उन को समझाया कि मनुष्य की गति उसके अपने कर्मों से होती है, न कि उसके परिवार द्वारा मरणोपरांत की गई किसी विधि से। ईश्वरीय विधान इतना असंगत नहीं हो सकता कि एक व्यक्ति जिसने सारी जिंदगी बुरे काम किए हैं, केवल इसलिए उत्तम गति को प्राप्त करेगा, कि उसके पुत्र ने धन का उपयोग कर विधि विधान से उसके अंतिम संस्कार या क्रिया कर्म कर दिए हैं; और एक सज्जन पुरुष इसलिए नरक में जाएगा कि उसका पुत्र उस की देह को समाज के लिए दे देता है।

तेरहवीं आदि पर बोलने वाले एक पंडित जी कहा करते थे कि नेत्रदान महापाप है। मैंने उनका जमकर विरोध किया। मैंने प्रश्न किया, "किस शास्त्र में लिखा है, कि दान भी पाप हो सकता है?" मैंने उनको गीता में से अनेक उदाहरण दिए कि यज्ञ, दान और तप मनुष्यों को पावन करते हैं। निष्काम कर्मयोग गीता का सारभूत सिद्धांत है और शरीर या उसके किसी अंग का दान तो उत्तम कर्म है। मैं किसी ऐसी संस्था की तलाश में था जो देहदान में मेरी सहायता कर सके। मेरे एक परिचित ने मुझे दधीचि देहदान समिति का एक पुराना सा संकल्प पत्र दिया। उस पर लिखे वेबसाइट से मैंने फॉर्म डाउनलोड कर लिया और फॉर्म भर लिया। अब मैंने उस फॉर्म को जमा करवाने के विषय में कुछ शंका निवारण के लिए उस पर लिखे फोन नम्बर पर फोन मिलाया। मेरी बात डॉ विशाल चड्डा जी से हुई। बड़े उत्साह से उन्होंने मुझसे बात की और उन्होंने मेरे से पता लेकर श्री राकेश अग्रवाल जी को फोन किया और अगले ही दिन राकेश जी मेरे घर पर आ गए।

मैंने राकेश जी का स्वागत किया और कहा कि मैं स्वयं ही फॉर्म भेज देता। इस पर राकेश जी ने जो मुझे बताया, वह एक सुखद आश्चर्य था। राकेश जी ने मुझे बताया कि "हम केवल फॉर्म नहीं लेते, हम लोगों को दधीचि परिवार से जोड़ते हैं। हम दानकर्ताओं के साथ निरंतर संपर्क में रहते हैं। साथ ही हम दान से पहले यह भी सुनिश्चित करते हैं कि क्या दानकर्ता ने अपने निकटतम परिजनों से सहमति ले ली है, क्योंकि उस के बिना फॉर्म भरने का कोई लाभ नहीं है।"

राकेश जी ने मुझे परिवार से बात करके फॉर्म बाद में देने की सलाह दी। लेकिन मैंने उन्हें कहा कि मैंने पहले ही परिवार से बात कर ली है और मेरा निश्चय अटल है और पुत्र आज्ञाकारी। तो राकेश जी ने सहर्ष मेरा फॉर्म ले लिया। आगे बातचीत में मैंने उन्हें बताया कि हमारा एक वरिष्ठ नागरिकों का ग्रुप है, जहां हम हर सप्ताह मिलते हैं। तय हुआ कि हमारी अगली मीटिंग में दधीचि से कुछ लोग आएंगे और ग्रुप के सदस्यों को देहदान, अंगदान विषय पर संबोधित करेंगे।

हमारी अगली मीटिंग में डॉ. विशाल चड्डा और राकेश जी और उनके कुछ दोस्त आए और उन्होंने देहदान, अंगदान और दधीचि की कार्यविधि से लोगों को अवगत कराया। सभी ने उनको बड़े ध्यान से सुना। उनमें से कुछ लोगों ने देहदान, अंगदान का मन भी बनाया और बाद में फॉर्म भी भरा।

28 अप्रैल 2018 के दिन मेरा फॉर्म समिति के पास पहुंचा। उसके कुछ माह बाद मुझे वसुंधरा वैशाली समिति का सदस्य बनने का सौभाग्य मिला। मैंने सोचा कि क्यों न रामप्रस्थ ग्रीन्स में, जहां मैं रहता हूं, एक गोष्ठी आयोजित की जाए। मेरे प्रस्ताव को समिति ने हाथों हाथ लिया। गोष्ठी आयोजित की गई और काफी सफल हुई। उस के बाद और भी गोष्ठियां आयोजित हुईं और लगभग 60-70 लोगों को दधीचि से जोड़ने में मैं सफल रहा।

मुझे दधीचि स्वयंसेवकों की कार्यशालाओं में भाग लेने का अवसर मिला, जहां मुझे माननीय आलोक जी और केंद्रीय समिति के अन्य वरिष्ठ सदस्यों को सुनने का सौभाग्य मिला। समिति के कार्य मुझे लगातार प्रेरणा देते हैं।

आर . पी . अरोड़ा
दधीचि देहदान समिति के सदस्य


The knowledge we get from this web magazine is essential
for all

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय

नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा -

न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥

Dear Editor

Pranam!

The above shloka from Sri Bhagwat Geeta reminds us day and night that it is our soul that is our permanent energy. The body is only like a clothing for it. Just like humans give up their old clothes and step into new ones, similarly our soul also leaves the old body and enters a new one upon our death. Yet, even with the knowledge of this universal truth, the people love their bodies so much, even in the face of death, that organ donation the world over, and in India especially, is still a far reality.

Amidst a considerably dismal scenario on the organ donation front, in steps an organization like Dadhechi Deh Dan Samiti that does the noblest of causes to make people aware and motivate them for organ donation. Besides the seminal work being done in physical form, the cardinal importance that the bimonthly e-journal has, by making the connect with youth in this digital era, is phenomenal. In such a short span of time, the journal has made a niche for itself and it gives me immense happiness that its 50th volume is out to be due soon. I am writing to you with this congratulatory note that the topics covered in the journal over the years, from the idea of body donation, to dispelling the myths surrounding it, with discussions on topic of emotional quotient, and many similar ones, the list is huge, endless and all-encompassing. In fact, I too got motivated to donate my body (‘all parts that can be used’ category) only after listening to the motivating sessions of the Samiti and on regularly and avidly following the e-journal and its listed topics.

The information that is given in this journal is very useful for the society. The knowledge we get from this magazine is also necessary for all of us.What a joy and beauty to know that your organs can give life to 8 people (It is said that 1 donor can save 8 lives)!! And not just these 8 who are the direct beneficiaries, but when we think of their families, their children, parents, friends, near and dear ones, the multiplier effect is phenomenal!

I can’t explain in words the joy at the mere thought that I get when I imagine another person seeing the world through my eyes, his/her heart beating for the near and dear ones through my heart, he/she doing all other normal everyday routine activities through me, like I had been doing all my life! It gives me hair raising sensation at the mere idea of this noble a cause. My child, if he ever meets my recipient, can feel my eyes in his/her face, my heart beating in someone else’s body and the feeling he shall get shall be unparalleled. In fact, in my thought process, I consider this as an act of getting immortal! We continue to live through someone else even after our deaths.

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥

It is our soul that is indestructible, but our body is not. So, when something has to anyway get destructed in the holy death pyre, why not give it up for someone’s use? My soul is mine, now and forever, and my ticket to my after-life journey, so let’s just stick on to that and do away with this negative attitude towards body/organ donation. Let there be no dichotomy in our thoughts—we either believe in the writings of Sri Bhagwat Geeta or we don’t—there is no mid-way or grey zone. So, if you believe and are a devout Hindu (other religions and their texts teach the same), there should be no qualms about body and organ donation. For any hesitation and hiccups, lucky is our generation to have Dadhechi Deh Dan Samiti and its e-journal to ease our anxieties. Congratulations again to the founders, management and the whole editorial team who is doing this yeomen service for this noble cause, physically and through this journal too. Congratulations once again on its golden jubilee volume!

Dr. Deepti Taneja
Joint Dean, University of Delhi