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दधीचि कथा

दधीचि देह दान समिति द्वारा आयोजित कार्यक्रम में परम स्नेही भाई अजय जी का कथा वाचन

भारत भूमि की सदियों से दान की परम्परा रही है। महर्षि दधीचि से लेकर राजा शिवि हों या मोरध्वज। जब हम अपनी श्रुतियों और परम्पराओं को खंगालेंगे तो हमें अनेक ऐसे दानी रत्न मिल जाएंगे। सर्वाधिक महतवपूर्ण बात यह है कि इन सभी के अंर्तमन में दान देते समय देने की नहीं बल्कि कत्र्तव्य की भावना रहती थी। जहां तक स्मृति विगत की तरफ दौड़ती है महर्षि दधीचि ऐसे प्रथम दानी थे जिन्होंने अपनी सम्पूर्ण देह कत्र्तव्य भाव से, बल्कि कहें सहज स्वभाव से,देवताओं को दान कर दी थी।

नई दिल्ली के संसद मार्ग पर स्थित एनडीएमसी के कन्वेन्शन सेन्टर में सुविज्ञ कथावाचक भाई अजय जी ने दधीचि जयंती पर 20 सितम्बर 2015 को दधीचि की देह दान की कथाका वर्णन किया। भाई अजय जी ने कथा वाचन से पहले गणपति की वंदना की और इसके बाद कथा सुनाना प्रारम्भ किया। उन्होंने बताया क्यों देवासुर संग्राम हुआ और असुर राजा वृत्रासुर का आर्विभाव कैसे हुआ। कथावाचक अजय भाई द्वारा गाई गई दधीचि देह दान कथा इस प्रकार हैः-

ऋषि अर्थव और देवकन्या सुकन्या के पुत्र थे दधीचि। माता सुकन्या को कहीं-कहीं चिति या शान्ति के नाम से भी जाना जाता है। ऐसे माता-पिता की संतान दधीचि बाल अवस्था से ही ईश्वरमय हो गए थे। हर समय भगवान के ध्यान में लीन, समाधिस्त और जो कोई भी उनसे जो भी मांगने आता सहजता से उसे दान कर देते। मृत्यु लोक के इस वासी ने अपनी तपस्या से देवताओं के बीच भी अपना सादर स्थान बना लिया था। ब्रह्मा जी इस तपस्वी की अदम्य शक्ति को अच्छी तरह जान-समझ चुके थे।

ब्रह्मांड में हमेशा दो तरह की ताकतें रही हैं। एक ताकत है देवताओं (अच्छाइयों) की और दूसरी है दानवों या असुरों (बुराइयों) की। देवताओं के गुरु हैं बृहस्पति और दानवों के शुक्र। देवताओं का राजा इन्द्र है। उसे अपने शक्तिशाली होने का अहंकार था। एक बार इन्द्र की सभा में गुरु बृहस्पति आए। पूरी सभा उनके सम्मान में खड़ी हो गई, लेकिन अभिमानी इन्द्र नहीं उठा और न ही उसने गुरु के प्रति सम्मान भाव प्रदर्शित किया। शिष्य को सबक सिखाने के लिए गुरु लीला करते हैं। उन्होंने उस समय इन्द्र से कुछ नहीं कहा, बस चुपचाप सभा से बाहर चले गए। यूं भी कहावत है, ‘जहां सम्मान नहीं वहां रुकना नहीं।’

बस, दैत्य गुरु शुक्राचार्य को देवताओं और इन्द्र को पराजित करने का अच्छा अवसर मिल गया, क्योंकि गुरु बृहस्पति के चले जाने से देवताओं के साथ इन्द्र भी निर्बल हो चुका था। गुरु शुक्राचार्य के उकसाने पर दैत्यों यानी असुरों के देवताओं पर अत्याचार बढ़ने लगे और देवता उनका मुकबला करने में स्वयं को अक्षम पाने लगे।

गुरु बृहस्पति रुष्ट होकर देव लोक छोड़ कर जा चुके थे और अभिमानी इन्द्र को उनके चरणों में जाना अपना अपमान लगा। नतीजा यह कि, उसने त्वष्टा ऋषि के पुत्र विश्वरूप को देवताओं का पुरोहित नियुक्त कर दिया। देवता जीतने लगे। जीत के साथ देवताओं का साहस और लालच भी बढ़ने लगा और इन्द्र ने आदेश दे दिया कि असुरों का हमेशा कि लिए सफाया कर दिया जाए।

विश्वरूप कीमां दैत्य (असुर) कुल की थी। इन्द्र के आदेश की जानकारी होते ही एक असुर ब्राह्मण का वेश रख कर विश्वरूप केपास पहुंचा। उसने विश्वरूप से पूछा, ‘क्या आपको अपनी माता से प्रेम नहीं है? अगर आप असुरों का विनाश कर देंगे तो आपके मातृ कुल में कौन बचेगा? क्या आप भूल गए हैं कि आपकी माता असुर कुल की हैं?’

विश्वरूप का मन विचलित हो गया। इसके बाद वह कर्म तो देवों की ओर से कर रहा था, लेकिन मन पूरी तौर पर असुरों की तरफ हो गया। उसकी इस दुविधा का असर देवासुर संग्राम पर पड़ने लगा। इन्द्र ने उसकी मनोदशा को ताड़ लिया और माया द्वारा उसका वध कर दिया। विश्वरूप के वध से इन्द्र को ब्रह्म हत्या का पाप लगा। उधर विश्वरूप के वध और इन्द्र के लालच की पराकाष्ठा से क्रोधित होकर विश्वरूप के पिता त्वष्टा ने एक विशाल दानव को रचा, प्रकट किया। बिजलियां कड़कने लगीं और पूरा ब्रह्मांड थर्राने लगा। यही था वृत्रासुर दानव। वह असुरों का राजा कहलाया और उसने देवताओं के छक्के छुड़ाना शुरू कर दिया। यहां तक कि इन्द्र का प्रत्येक शस्त्र उसके सामने बेकार होने लगा।

वृत्रासुर की ताकत देखकर इन्द्र का अहंकार टूटने लगा। घबरा कर इन्द्र ब्रह्मा जी के पास पहुंचा। वृत्रासुर के वध के लिए इन्द्र की आर्त विनती सुन कर ब्रह्मा जी कहा मृत्यु लोक में मानव रूपी एक देव-ऋषि हैं। उनका नाम दधीचि है। वह महादानी हैं। यदि वह अपनी सम्पूर्ण अस्थियों का दान कर देते हैं तो उन अस्थियों से बने शस्त्र से वृत्रासुर का वध हो सकता है।

इन्द्र सकपका गया। उसने ब्रह्मा जी से कहा, ‘किसी से भूमि का दान मांगा जा सकता है, सेवा का दान मांगा जा सकता है, वचनों का दान मांगा जा सकता है, लेकिन, देह का दान कैसे मांगा जा सकता है?

ब्रह्माजी ने कहा, ‘वह महामानव निराभिमानी हैं। बहुत सरल, सहज, अभिमान से कोसों दूर, परोपकारी ऋषि हैं। हमेशा तपस्या में लीन रहते हंै। तुम निःसंकोच उनसे उनकी अस्थियां दान में मांग लो।’

दान देने की भावना से नहीं बल्कि कत्र्तव्य की भावना से होता है, इसको स्थापित करने के लिए कथावाचक अजय भाई ने राजा मोरध्वज का उदाहरण दिया। अर्जुन के मन में एक बार इस बात का घमंड आ गया था कि वह भगवान कृष्ण का परम प्रिय मित्र है। कृष्ण उसका घमंड दूर करने के लिए उसे राजा मोरध्वज के दरबार में ले गए। कृष्ण ने उस समय स्वयं एक ब्राह्मण का वेश धारण कर लिया था। ब्राह्मण रूपी कृष्ण ने मोरध्वज के दरबार में पहुंचते ही उसे भाग्यवान होने का आर्शीवाद दे दिया। मोरध्वज ने विनम्रता से कहा, ‘हे विप्र, अभी मैंने आपसे कुछ मांगा ही नहीं और आपने मुझे आर्शीवाद दे दिया। बताइए मैं आपको क्या दे सकता हूं।’

ब्राह्मण रूपी कृष्ण ने कहा, ‘राजन्, मैं तुमसे तुम ही को मांगने आया हूं। मेरे पुत्र को सिंह ने पकड़ लिया है। उसका कहना है, अगर राजा मोरध्वज अपनी देह का पूरा दाहिना भाग उसे दे दें तो वह मेरे पुत्र को छोड़ देगा। उसकी शर्त यह है कि आपकी धर्मपत्नी (यानी महारानी) और पुत्र ताम्रध्वज आरी से आपके दो हिस्से करें। (यहीं कृष्ण अर्जुन को देने के भाव की सत्यता दर्शाना चाहते थे)।

मोरध्वज की पत्नी आईं, साथ भी बेटा भी आया। महारानी ने ब्राह्मण रूपी कृष्ण से कहा, ‘हे विप्र! मैं महाराजा की अर्धांगिनी हूं। मैं भी अपना अर्धांग देने का उनके समान अधिकार रखती हूं। आप मेरा अर्धांग ले जाकर सिंह को दे दीजिए।’

बेटा ताम्रध्वज भी बोला, ‘हे ब्राह्मण देवता! मैं अपने पिता का ही अंश हूं। उनके एवज में आप मेरा दान स्वीकार करें।’ लेकिन कृष्ण ने कहा कि सिंह को सिर्फ मोरध्वज की देह का सम्पूर्ण दाहिना भाग चाहिए।

महारानी और पुत्र ताम्रध्वज ने आरी उठाई और राजा मोरध्वज की देह के सिर से दो हिस्से करने लगे। जैसे ही दाहिनी आंख कट कर बांई आंख से अलग हुई, बांई आंख से आंसू बहने लगे। ब्राह्मण रूपी कृष्ण ने कहा कि दुःख से भरा दान नहीं चाहिए। महाराजा मोरध्वज ने बांए हाथ से बांई आंख के आंसुओं को पोछते हुए कहा, ‘विप्रवर! यह दुःख के आंसू नहीं हैं बल्कि बांया हिस्सा अपने दुर्भाग्य पर रो रहा है, पछता रहा है कि क्यों नहीं वह भी दांए भाग के समान काम आ रहा है।’

इतना सुनते ही कृष्ण ने ब्राह्मण का रूप छोड़ दिया, अपना वास्तविक रूप धारण कर लिया और अर्जुन का अभिमान चूर-चूर हो गया।

इसके बाद अजय भाई ने दधीचि देह दान कथा को पुनः आगे बढ़ाया। ब्रह्मा जी द्वारा राह दिखाए जाने के बाद इन्द्र मृत्यु लोक में महर्षि दधीचि के आश्रम पहुंचा। आश्रम परिसर में उसे कहीं वेदवाणी सुनाई दी, कहीं मंत्रोच्चार हो रहे थे तो कहीे वेद पाठ। कहीं गायों की सेवा हो रही थी तो कहीं हवन में आहूतियां दी जा रही थीं। इन्द्र के मन में सवाल उठा, ‘आखिर से दधीचि कौन हैं? पूछते-पूछते वह महर्षि दधीचि की कुटिया में पहुंचा।

कुटिया का वातावरण शान्त, सौम्य और सादा था। इन्द्र के कानों में ऊँ का उच्चारण पड़ा। देखा महर्षि ध्यानस्थ बैठे हैं। उसने उन्हें प्रणाम किया और एक तरफ चुपचाप बैठ उन्हें अपलक निहारने लगा। कहा जाता है किसी सोए व्यक्ति को कोई दूसरा लगातार देखे तो उसकी उसकी नींद टूट जाती है। ठीक उसी प्रकार महर्षि की समाधि भी टूटी, वह ध्यान से बाहर आए और इन्द्र से पूछा, ‘देवराज! आप कब और कैसे आए? आपकी क्या सेवा कर सकता हूं?’

इन्द्र का हृदय यह सोच कर विचलित था कि आखिर वह ऋषि से क्या मांगने आया है! उनकी देह!

‘ऋषिवर एक समस्या लेकर आया हूं,’ इन्द्र ने कहा।

‘निःसंकोच कहो देवराज।’ ऋषि मुस्कुराए। ‘संत से मिलने के बाद समस्या का अंत न हो तो वह संत कैसा!’ ऋषि ने इन्द्र के असमंजस को समझ कर मुस्कुराते हुए कहा।

‘मैं कैसे कहूं?’ इन्द्र ने संकोच से कहा।

‘देवराज, मुझे पता है तुम क्यों आए हो?’ ऋषि दधीचि बोले।

इन्द्र के माथे पर पसीने की बूंदें छलछला आईं। ‘ऋषिवर! मैं कहना चाहता हूं..... ब्रह्मा जी.....’ आगे कुछ न बोल इन्द्र कुछ पल के लिए चुप हो गया और फिर बोला, ‘मुझे संकोच हो रहा है....’। इन्द्र फिर चुप।

दधीचि मुस्कुराए। बोले, ‘इन्द्र! संत कास्वभाव है देना। जो दे नहीं सकता, वह साधु नहीं हो सकता। आप जो मांगने आए हैं उसके लिए मैं समर्पित हूं। मुझे अपनी देह का दान स्वीकार है।’

इन्द्र को अपनी देह के दान की स्वीकृति देने के बाद उन्होंने भूमण्डल की सभी नदियों का जल मंगाया जिसे आश्रम परिसर स्थित सरोवर में एकत्र किया गया। मृत्यु लोक में महर्षि दधीचि का मूल आश्रम वहीं था जिसे आज हम नेमिशारण्य के नाम से जानते हैं। महर्षि ने उस जल से स्नान किया, समाधि लगाई और ब्रह्म मंत्रोच्चार के साथ प्राण त्याग दिए। देवताओं की कामधेनु गाय ने महर्षि की देह को चाट-चाट कर उनके कंकाल को सुरक्षित निकाला। देवताओं के शिल्पकार विश्वकर्मा ने कंकाल से जो शस्त्र बनाया उसे वज्र के नाम से जाना गया। उसी अमोघ शस्त्र से देवराज इन्द्र ने असुर राजा वृत्रासुर का वध कर असुरों का समूल नाश किया। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है, ‘आयुधानामहं वज्रम्’ अर्थात वज्र नामक शस्त्र स्वयं भगवान की विभूति है।

यह था महर्षि दधीचि का कत्र्तव्य भाव से किया गया दान!

प्रस्तुति: इन्दु अग्रवाल

विशेष टिप्पणी

जब महर्षि दधीचि ने अपनी देह दान की थी, उस समय देवताओं को उनकी अस्थियों की ही ज़रूरत थी। आज के सन्दर्भ में चिकित्सा तकनीक में इतनी उन्नति हो गई है कि दानी के कई अंगों को प्रत्यारोपित किया जा सकता है, स्टेम सेल से आवश्यक अंग को विकसित किया जा सकता है। लेकिन, इसका अर्थ यह नहीं है कि दधीचि के युग में चिकित्सा विज्ञान और चिकित्सा तकनीक उन्नत नहीं थे। बल्कि मेरा मानना है कि उस काल में और वर्तमान युग (कलियुग) शुरू होने से पहले तक उस तरह की बीमारियां नहीं होती थीं जो अब होती हैं। जैसे आंखों की रोशनी चली जाना-चाहे ऐसा रोगजन्य हो या किसी दुर्घटनावश; गुर्दों का खराब हो जाना; शरीर की धुरी यकृत में विकृति आ जाना; हृदय संबंधी रोग इत्यादि। इसीलिए दधीचि के दान से प्रेरित हो देह दान को बढ़ावा देने वाली समिति ‘दधीचि देह दान समिति’ ने स्वयं को सिर्फ मृत्यु बाद देह दान तक सीमित नहीं रखा है और दधीचि के देह दान का दायरा बढ़ा कर, वर्तमान ज़रूरतों के मुताबिक नेत्र दान, अंग दान, टिश्यू दान, स्टेम सेल दान तक कर लिया है। हम यह बात इस तरह भी कह सकते हैं कि महर्षि दधीचि ने अपनी सम्पूर्ण देह के रूप में अपनी सभी अंग भी देवताओं को दान कर दिए थे। लेकिन देवताओं को ज़रूरत सिर्फ उनकी अस्थियों की अस्थियों की थी, इसलिए उन्होंने उनका ही इस्तेमाल किया। लेकिन दधीचि ने पूरी देह समर्पित कर दी थी, इसलिए उसे उनका देह दान कहा जाता है। फिलहाल, इस परिप्रेक्ष्य में हम महर्षि दधीचि को अंग दान का प्रणेता भी मान सकते हैं।
- इन्दु अग्रवाल