नरु मरै नरु कामि न आवै, पसू मरै दस काज सवारै
राजीव गोयल
पवित्र गुरबानी के इन शबद का शाश्वत जीवनोपयोगी भावार्थ यह है कि हमारे अन्दर की मनुष्यता मर जाये तो हमारा जीवन किसी काम का नहीं पर अगर हमारे अन्दर की पशुता मर जाये तो हमारा जीवन सार्थक है| अतः हमें अपने अंतर की पशुता को मारकर मनुष्यता को जीवित रखना चाहिए और जीवन में परोपकार के कार्य करने चाहियें|
महापुरुषों के वचन जीवन के बारे में बहुत अच्छी बातें बताते हैंऔर उन बातों के जीवनोपयोगी कई अर्थ निकलते हैं| उनकी दिव्यदृष्टि जो देखती है वो हमें जल्दी समझ नहीं आता| हम सामयिक परिवेश के अनुसार ही उनकी गूढ़ बातों का अर्थ निकालते हैं और जीवन सार्थक करने के लिए यह सही भी है| बदलते परिवेश से उनके उपदेशों के अलग अर्थ भी उजागर होते हैं जो अधिक सार्थक लगते हैं| पवित्र गुरबानी के ये शबद बताते हैं कि पशु तो मरने के बाद भी बहुत उपयोगी होता है पर इंसान मरने के बाद किसी काम नहीं आता| शायद गुरु साहब शाब्दिक अर्थ के अनुसार यह भी कहना चाह रहे हों कि मृत्यु के बाद नर देह को भी उपयोगी बनाना चाहिए| शायद उन्होंने भविष्य में मृत शरीरों की अंत्येष्टि से होने वाले पर्यावरण के अति दूषित होने के परिणाम को पहले ही भांप लिया था|
हिन्दुओं में मृत देह को जलाने के लिए लकड़ी इस्तेमाल में लायी जाती है और लकड़ी पेड़ों से मिलती है| पहले जंगलों से सिर्फ सूखी लकड़ियाँ ही बीन कर इस्तेमाल की जाती थीं| लकड़ी की बढ़ती ज़रूरतों के कारण पेड़ों को काटा जाने लगा| पेड़ कटने से वायु का शुद्धिकरण कम होता जाता है, वहीँ उसे जलाने से कार्बन उत्सर्जन बढ़ता जाता है| यानि दो तरह से पर्यावरण को क्षति होती है| प्रदूषण और बदलती जीवन शैली से हमारी स्वास्थ्य समस्याएं भी बढ़ती जा रही हैं| ऐसे में अधिक डॉक्टरों और विशेषज्ञों की आवश्यकता बढ़ती ही जा रही है|
अब चिकित्सा विज्ञान ने उनके उपदेश के इस शाब्दिक भाव को भी सार्थक करने का विकल्प दिया है – देह-अंग दान के रूप में| मरणोपरांत नेत्र दान से 8 नेत्रहीनों तक को नेत्रज्योति मिल सकती है| अंग दान से जिन रोगियों को इनकी ज़रुरत है उनका जीवन बचाया जा सकता है| जितने लोगों को अंग प्रत्यारोपण की आवश्यकता है उसका एक छोटा अंश ही अंगदान से मिल पाता है और रोगियों की प्रतीक्षा सूची बढ़ती जा रही है|देह दान से मानव देह की संरचना पढ़ कर अच्छे डॉक्टर बनते हैं और समाज को स्वस्थ रखने में सहायक होते हैं| चिकित्सा अनुसंधान के लिए भी मृत देह की बहुत आवश्यकता रहती है|
तो क्यों न हम गुरु महाराज के शबद ‘नरु मरै नरु कामि न आवै, पसू मरै दस काज सवारै’ के प्रचलित अर्थ का पालन करते हुए अपने अंतर की मनुष्यता को जीवित रखकर अपने जीवनकाल में समाज कल्याण के कार्य करते रहें और साथ ही इस पवित्र शबद के शाब्दिक अर्थ को आज के बदले हुए परिवेश में सार्थक करने के लिए देह-अंग दान का संकल्प लेकर अपने मृत शरीर को भी मानव कल्याण के लिए समर्पित करें और ‘स्वस्थ सबल भारत’ के निर्माण में सहभागी बने|