पिछले लगभग बीस वर्षों से दिल्ली में एक टोली देहदान एवं अंगदान के लिये निस्वार्थ भाव से इस कार्य में लगी है। अब तो पिछले चार-पाँच वर्षों से कुछ सरकारी विभाग, कुछ और NGO’s एक दो Pvt. Chanells यहां तक कि स्वयं प्रधानमंत्री ने भी अपने मन की बात में अंगदान की बात कही हैं। स्पेन जैसा क्षेत्रफल में छोटा देश विश्व में सबसे अधिक अंगदान करता है, श्री लंका ने अपने आप को अंधतामुक्त कर लिया है। विश्व के अन्य देशों में भी अंगदान की प्रतिशत बहुत बड़ी है। यह सब इन देशों में बिना किसी कानून की बाध्यता के संभव हो पा रहा है। अर्थात वहां का समाज अपनी रूढ़ियाँ छोड़ कर इस महादान के महत्व को समझते हुए इस पुण्य कार्य में लगा है।
भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम् एवं महानतम संस्कृति है। दान, धर्म एवं उच्च संस्कार प्राचीन काल से ही समाज में वरिष्ठ स्थान रखते हैं। महर्षि दधीचि जो कि भारतीय संस्कृति के प्रथम अंगदानी कहे जाते हैं, ने दान की पराकाष्ठा का उदाहरण समाज के समक्ष रखा। भारतीय संस्कृति में पर-हित सबसे बड़ा धर्म माना गया है।
दूसरी तरफ वर्तमान में अगर कोई सबसे बड़ा अवरोध देहदान-अंगदान के संदर्भ में है तो वह हमारी धार्मिक मान्यताऐं ही हैं। यह किसी के कहने से, समझाने से दूर होंगी ऐसा भी नहीं है। इसके लिए व्यक्ति को आध्यात्मिक स्तर पर अपने आप से ऊपर उठना पड़ेगा, अंतिम संस्कार अगर नहीं होगा तो मुक्ति नहीं मिलेगी, अंगदान करने से वह अंग अगले जन्म में नहीं मिलेगा, इस पर भारतीय संस्कृति के आलोक में दोबारा से समझना पड़ेगा। अपनी संस्कृति के मूल को, जड़ को दोबारा से समझना एवं अपनाना पड़ेगा ।
एक तरफ तो हमारी नई पीढ़ी पुरानी, दकियानूसी परम्पराओं को छोड़ने की बात कर रही है और दूसरी तरफ अपने अंगदान से किसी दूसरे व्यक्ति को जीवन दान देने की बात के लिये उदासीन है। आज देश में लगभग पांच लाख लोग प्रति वर्ष अंग न मिलने के कारण दम तोड़ते है। अगर देश का युवा जो कि 130 करोड़ के देश का 65% है, यह ठान ले कि अंगदान भी रक्तदान जैसा ही दान है तो शायद भारत के 80 लाख लोग जिन्हें आंखो की आवश्यकता है, वह भी इस सुंदर प्रकृति को देख सकेगें और लाखों अन्य लोगों को भी जीवन दान मिल सकेगा।
देहदान-अंगदान को सामाजिक आवश्यकता मानते हुए अपनाने की आवश्यकता है।
आइए हम सब मिलकर रूढ़ीवादी मान्यताओं को पीछे छोड़ कर एक नए स्वस्थ -सबल भारत के निर्माण के भागीदार बने।
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