साक्षात्कार : प्रो. के.एस. धीमान
आयुर्वेद में सुश्रुत काल में भी होती थी शल्य चिकित्सा प्रोफेसर के.एस. धीमान, सेन्ट्रल काउंसिल फाॅर रिसर्च इन आयुर्वेदिक मेडिसिन के महानिदेशक हैं। दधीचि देह दान समिति के उपाध्यक्ष श्री महेश पंत ने साक्षात्कार में उनसे यह जानने का प्रयास किया कि आयुर्वेद में देह दान का चिकित्सा छात्रों के अध्ययन हेतु शव की शवछेदन (डिसेक्शन) और शल्य चिकित्सा (सर्जरी/आॅप्रेशन) से रोगों का इलाज का ज़िक्र है या नहीं। अगर ऐसा था तो यह कब से शुरू हुआ।
प्रश्न - आयुर्वेद में देह दान का विषय कितना संगत है?
उत्तर - बहुत सुसंगत है। देह दान वास्तव में स्वास्थ्य विज्ञान के ज्ञान के लिए अति महत्वपूर्ण है।
प्रश्न - आयुर्वेद के साहित्य में क्या देह दान के प्रमाण हैं? अगर हैं तो कब?
उत्तर - मृत देह के शवछेदन (डिसेक्शन) से भीतरी अंगों के ज्ञान पाने की विधा साफ तौर पर सुश्रुत संहिता में है। आयुर्वेदिक चिकित्सा विज्ञान के अध्ययन के लिए उस समय जो शव मिलते थे वह या दान में मिलते थे अथवा राजा की आज्ञा से लावारिस शव प्राप्त किए जाते थे यह ज्ञात नहीं है, लेकिन मृत देह का शवछेदन दिन में होता था, जिसका मतलब है उसको उस समय सामाजिक स्वीकृति प्राप्त थी। परन्तु सुस्पष्ट देह दान की बात का संदर्भ हमें नहीं मिलता है।
प्रश्न - मृत देह पर पढ़ाई करने का जो नवीनतम संदर्भ है वह कब का है?
उत्तर - सुश्रुत संहिता को शल्यचिकित्सा (सर्जरी/आॅप्रेशन) और शवछेदन का काल माना जाता है। इस संहिता का समय ईसा पूर्व ढाई हज़ार वर्ष है। इस संहिता में शव का शवछेदन कैसे करना है, कैसे मृत देह के अंदर जाते हुए सभी प्रकार की धातुओं और सभी प्रकार के अंगों का ज्ञान प्राप्त करना है इसका, स्पष्ट वर्णन है।
प्रश्न - क्या वर्तमान में आयुर्वेद के विद्यार्थी मृत देह पर पढ़ाई करते हैं?
उत्तर - बिल्कुल। बीएमएस पाठ्यक्रम में प्रथम वर्ष का यह आवश्यक हिस्सा है। इसमें दान में मिली मृत देह पर हर विद्यार्थी को सारे अंगों का ज्ञान पाना होता है। इसके बिना उनकी आयुर्वेद चिकित्सा की पढ़ाई पूरी नहीं होती। परीक्षा के समय भी उन्हें मृत देह पर कार्य करके अपनी जानकारी को प्रमाणित करना होता है।
प्रश्न - क्या आयुर्वेद में शल्य चिकित्सा (सर्जरी/आॅप्रेशन) का विधान है?
उत्तर - बिल्कुल। दुनिया के लगभग सभी देशों की शल्य चिकित्सा की किताबों में एकमत से स्वीकार किया गया है कि इसके जन्मदाता सुश्रुत थे। उन्होंने हर प्रकार की शल्य चिकित्सा की थी। अंग प्रत्यारोपण का भी काम हुआ। अश्विनी कुमारों ने नेत्र का प्रत्यारोपण करके फिर से दृष्टि प्राप्त करवाई थी। सिज़ीरियन सेक्शन का भी विधान है। यह विधान उस अवस्था के लिए निर्दिष्ट किया गया था जब गर्भवती महिला की मृत्यु हो जाती है। उसकी मृत्यु के तुरंत बाद सिजी़रियन से (पेट फाड़ कर) शिशु को बचाया जा सकता है। अगर किसी की आंत बीच में से कट गई हो तो उसको जोड़ने की प्रक्रिया भी उपलब्ध है। किसी के पेट में एसाइटिस हो जाए यानी पेट में पानी भर जाए तो उसको निकालने की प्रक्रिया भी है। अगर किसी का कान कट गया है तो कान के एक हिस्से का बदला जा सकता था या पूरे कान को उसी व्यक्ति की त्वचा से दोबारा निर्मित किया जा सकता था। इसमे कोई दो राय नहीं है कि प्लास्टिक सर्जरी के जनक सुश्रुत ही थे। प्लास्टिक सर्जरी की किताबों में आज भी रिनोप्लास्टी की भारतीय विधि (इण्डियन मैथेड आॅफ रिनोप्लास्टी) उपलब्ध है।
प्रश्न - वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आयुर्वेद में शल्य चिकित्सा के बारे में कुछ बताएं।
उत्तर - आज के परिपे्रक्ष्य में आयुर्वेद में शल्य चिकित्सा बहुत ज़्यादा प्रचलित नहीं है। परन्तु कुछ राज्यों में, जहां शल्य चिकित्सा के बाद अंग्रेज़ी दवाओं के उपयोग की अनुमति है, वहां आयुर्वेदविज्ञानी लेप्रोस्कोपी, एंडोस्कोपी और आंखों की भी शल्य चिकित्सा करते हैं। वास्तव में एलोपैथी की कुछ औषधियों जैसे एनस्थीसिया, एंटीबायोटिक्स आदि के उपयोग प्रतिबंध है, इसलिए इसका पूरा श्रेय एलोपैथी की आधुनिक शल्य चिकित्सा को जाता है। लेकिन यह सुनिश्चित है कि शल्य चिकित्सा की जड़ सुश्रुत संहिता में ही है।
वर्तमान में आयुर्वेद में शल्य चिकित्सा के क्षेत्र में विकास भगंदर के इलाज में हुआ है। इसमें पूरी तौर पर शल्य चिकित्सा नहीं होती है। आयुर्वेद में इसे परा शल्य चिकित्सा पद्धति (पैरा सर्जिकल मैथेड) कहते हैं। इस पद्धति में एक धागे पर आयुर्वेदिक औषधियों का क्षार लगा दिया जाता है। फिर इस धागे को भगंदर के मस्से के चारो तरफ लपेट कर बांध देते हैं। धागे में लगा क्षार धीरे-धीरे उसे काटता रहता है, साथ ही घाव भी भरता रहता है। एलोपैथी में इसकी बहुत काट-छांट की जाती है जिससे ऊतकों का काफी नुकसान हो जाता है, जबकि आयुर्वैदिक पद्धति में ऐसा नहीं होता। आयुर्वेद की इस पद्धति की सफलता की दर 98 प्रतिशत से ज़्यादा है। यही नहीं, पैरा सर्जिकल मैथेड के बाद अगले ही दिन मरीज़ अपने काम पर जा सकता है।
सुश्रुत संहिता के मुताबिक तत्कालीन आयुर्वेद के मनीषी जो श्ल्य चिकित्साएं करते थे उनमें से कई आज भी की जा रही हैं। जैसे, टेरीज़ियम की शल्य चिकित्सा। इसमें आंख के काले हिस्से का मांस बढ़ जाता है, जिसे काट कर निकाल दिया जाता है और उस हिस्से को खाली छोड़ दिया जाता है जो अपने आप भर जाता है। इसे विधि को सुश्रुत की पहुंच (अप्रोच) या बेयर एरिया टेक्नीक कहते हैं। इसी तरह आयुर्वेद में ट्राइकेसेज़ और एन्ट्रोप्यूल के लिए जो शल्य चिकित्सा है वह भी परिष्कृत पहुंच (माॅडिफाइड अप्रोच) है। आल्ट्स आॅप्रेशन्स भी माॅडिफाइड हैं। मूल रूप से इनकी शल्य चिकित्सा पद्धतियां भी सुश्रुत संहिता में मिलती है।
प्रश्न - देह/अंग दान पर आप क्या कहना चाहेंगे?
उत्तर - मैं इसे इस तरह लेता हूं कि अगर किसी ने अपने नेत्र दान किए तो उसने दूसरे व्यक्ति को चक्षु (आंखों की रोशनी का) दान किया। अंग दान करता है तो दूसरे को जीवन देता है। परन्तु देह दान, आने वाली पीढ़ियों के लिए, वास्तव में ज्ञान दान होता है। इसलिए, इसके महत्व को नकारा नहीं जा सकता। दिल्ली की दधीचि देह दान समिति इस दिशा में श्रेष्ठ कार्य कर रही है। अगर हमें अपने और आने वाली पीढ़ियों के लिए अच्छे चिकित्सकों की ज़रूरत है तो मरने के बाद देह दान अवश्य करना चाहिए। देह दान को हमें जन आंदोलन (मास मूवमेन्ट) के रूप में लेने की आवश्यकता है। मेडिकल, आयुर्वेदिक, यूनानी और होम्योपैथिक काॅलेजों में छात्रों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है, इसलिए मेरी अपील है, ‘देह दान करें ज्ञान दान को बांटें’।
प्रश्न - देह दान का कोई आध्यात्मिक पक्ष भी है? या समाज को, आपके विचार से, इसे किस तरह लेना चाहिए?
उत्तर - हमारा जीवन चार चीज़ों के संयोग से बना है। भौतिक शरीर, इन्द्रियां, मन और आत्मा। हमारी मान्यता है प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा, परमात्मा या पराशक्ति का एक अंश है। अगर इसका अनुभव करना है तो एक बहुत बढ़िया व्यावहारिक उदाहरण है अंग दान। दान किया गया अंग दूसरे के शरीर में सजीव रहता है और उसे जीवन दान देता है। मेरी समझ में परमात्मा का एक अंश के होने का यह सबसे बड़ा प्रमाण है और इस तरह अंग दान का यह बहुत बड़ा आध्यात्मिक पक्ष है।
प्रश्न - अंत में दधीचि देह दान समिति के लिए आपका संदेश।
उत्तर - मेरा दधीचि देह दान समिति को कोटि-कोटि साधुवाद। मैं इसकी प्रशंसा करता हूं। हमारे काॅलेजों को मृत देहों का मिलना बहुत कठिन हो रहा है और कई जगहों पर चिकित्सा विद्यार्थियों को मृत देह पर काम किए बिना चिकित्सा की पढ़ाई करनी पड़ती है। उनका ज्ञान अधूरा रह जाता है। समिति, देह दान/अंग दान में मदद देने का काम अपने हाथ में लेकर एक बड़ा काम कर रही है। इसके लिए समिति, महान ऋषि दधीचि को प्रामाणिक मानते हुए उनके, पद चिन्हों पर चल रही है। इसकी जितनी प्रशंसा की जाए कम है। मैं जनता का आह्वान करता हूं कि देह/अंग दान के बाद बड़े-बड़े दान तुच्छ हो जाते हंै।
प्रस्तुति - इन्दु अग्रवाल