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स्वस्थ व सबल भारत का आधार - आयुर्वेद का प्राचीन ज्ञान विज्ञान

Prof. Mahesh Vyas, Ph.D.
Dean, All India Institute of Ayurveda, New Delhi

आयुर्वेद प्राचीन भारतीय चिकित्सा विज्ञान है। आयुर्वेद शब्द का अर्थ आयु अर्थात "दीर्घ जीवन" और वेद अर्थात "विज्ञान" होता है। आयुर्वेद का मुख्य प्रयोजन स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करना और व्याधित पुरुष की व्याधि का शमन करना है। आयुर्वेद प्रत्येक भारतीय के जन मानस में रचा बसा हुआ है। आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति के घटक द्रव्य हमारे घर के परिसर में या रसोई में विद्यमान है। हमें केवल उनकी पहचान होना आवश्यक है I चाहे सामान्य शिर शुल हो या असाध्य प्रमेह(Diabetes Mellitus) ही क्यों न हो दोनों ही प्रकार की व्याधियों की प्रारम्भिक चिकित्सा हम रसोईघर में उपस्थित विविध मसालों व घर के चारों ओर उपस्थित वनस्पतियों से कर सकते है। इसके अतिरिक्त आयुर्वेद चिकित्सा शास्त्र में बताया गया है कि किस प्रकार से व्यक्ति को आदर्श जीवन पद्धति का अनुसरण करना चाहिए जैसे प्रातः काल ब्रह्म मुहूर्त में जागरण से लेकर रात्रि में समय पर सोने तक की चर्या का विधिवत पालन करने से स्वस्थ एवं रोग रहित आयु की प्राप्ति होती है, यथा "ब्राह्मे मुहूर्त उतिष्ठेत स्वस्थो रक्षार्थमायुष:"(अ. ह. सु.2 )। आयुर्वेद शास्त्र स्वास्थ्य रक्षा के लिए अग्निहोत्र, होम या नियमित यज्ञ को महत्वपूर्ण मानता है जैसा कि आचार्य सुश्रुत ने कहा है कि

यथा - सर्षपारिष्टपत्राभ्यां सर्पिषा लवणेन च | द्विरह्नः कारयेद्धूपम ||

अर्थात शरीर, निवासस्थान तथा सम्पूर्ण वातावरण की शुद्धि हेतु प्रतिदिन होम या धूपन करना चाहिए I सम्भवतया इसीलिए सनातन भारतीय संस्कृती में अग्निहोत्र हमारी दिनचर्या का अहम भाग था I पीली सरसों, निम्बपत्र, घी व लवण द्वारा प्रतिदिन धूपन विविध व्याधियों का घर में प्रवेश हि नहीं होने देता हे अतः धूपन कर्म सभी को करना चाहिए।

श्रीमद भगवद गीता का अनुसरण करते हुए आचार्य चरक ने भी कहा है कि

सर्वमन्यत् परित्यज्य शरीरमनुपालयेत्|
तदभावे हि भावानां सर्वाभावः शरीरिणाम्||७||

प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं के शरीर की रक्षा करना चाहिए अर्थात सम्यक दिनचर्या, आचार रसायन,

सद्वृत व स्वस्थवृत का पालन करने से स्वस्थ समाज व स्वस्थ राष्ट्र का निर्माण स्वतः सम्भव हेI

यथा- नगरी नगरस्येव रथस्येव रथी यथा| स्वशरीरस्य मेधावी कृत्येष्ववहितो भवेत्||

स्वस्थ रहने के लिए आजीविका के उपाय भी कदापि धर्म विरोधी नहीं होना चाहिए । जैसा कि

आयुर्वेद शास्त्र में सुखी जीवन के लिए निर्दिष्ट किया गया है कि

वृत्त्युपायान्निषेवेत ये स्युर्धर्माविरोधिनः| शममध्ययनं चैव सुखमेवं समश्नुते||

"थे हार जाते अन्यदेशी वैद्य वर जिन रोग से।

हम भस्म करते थे उन्हें बस भस्म के ही योग से"।।

हमारा देश विश्व गुरु रहाहे I उसमें कहीं न कहीं आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इसलिये विश्व के कई देशों में आयुर्वेद का प्रचार- प्रसार चला आ रहा है।

आयुर्वेद इस सिद्धांत को सर्वथा स्वीकार करता है कि "शरीर माध्यम खलु धर्म साधनं"। जीवन में कुछ भी कार्य करो उसकी सफलता आरोग्य पर निर्भर होती है। छोटे से छोटा कोई भी कार्य स्वस्थ व्यक्ति के द्वारा ही संपादित किया जा सकता है अतः महाभारत में कहा गया है कि "अर्थगमो नित्यं अरोगिता च -- षड जीव लोकेषु सुखानि राजन "। अर्थात मानव जीवन में व्याधि रहित आयु ही सुख का मुख्य आधार माना गया है। आयुर्वेद में समस्त व्याधियों का कारण इन्द्रियो के हीन, मिथ्या व अति योग को माना गया है जैसा कि आचार्य चरक ने कहा है-

"कालबुद्धीन्द्रियार्थानां योगो मिथ्या न चाति च| द्वयाश्रयाणां व्याधीनां त्रिविधो हेतुसङ्ग्रहः||"

आज हम उत्तम जीवन शैली या आहार-विहार के नियमों का पालन करने के बजाय स्वाद केसा है उस पर ज्यादा ध्यान दे रहे जिसका परिणाम व्याधियों के रूप में नित्य प्रतिदिन देखने को मिल रहा है । आज पूरा विश्व कोरोना महामारी से जुझ रहा है और इससे बचने के लिए आयुर्वेद में विविध औषधि द्र्व्यों का वर्णन प्राप्त होता है किन्तु उनका भी नियम पूर्वक सम्यक मात्रा में प्रयोग नहीं किया जाए तो वे द्रव्य कई प्रकार के उपद्रव उत्पन्न कर सकते है । अतः नियम पूर्वक प्रयोग किये गए आहार या औषध द्रव्य ही सही परिणाम प्रदान करते है। संभवतया इसलिये आयुर्वेद के आचार्यों ने कहा है कि " न च आहार वेला अतिक्रमनिया ", एवं "काल भोजनं आरोग्य कराणाम" अर्थात स्वस्थ रहने के लिए हम सभी एक नियम बना ले कि मैं प्रतिदिन एक निश्चित समय पर ही भोजन करूँगा क्योंकि हमारा शरीर निर्धारित समय पर ही भोजन पाचन क्रिया प्रारंभ करता है यदि उस समय आहार ग्रहण नहीं किया गया तो हमारी पाचन क्रिया अव्यवस्थित हो जाती है जिसके परिणाम स्वरूप विविध पाचन संस्थान संबंधी विकार उत्पन्न होने लगते है अतः नियम बनाकर भोजन प्रतिदिन निर्धारित समय पर ही करना चाहिए।

आयुर्वेद स्वस्थ रहने के लिए आहार की मात्रा को एवं अग्नि के बल या पाचन के सामर्थ्य को भी महत्वपूर्ण मानता है जैसा कि आचार्य चरक ने कहा है कि "आहार मात्रा पुनराग्निबलापेक्षिणी" अर्थात हमें सदैव प्रयत्न करना चाहिए कि हमारा अग्नि बल या भोजन पाचन क्षमता उत्तम बनी रहें यदि किसी कारणवश व्यतिक्रम उत्पन्न होता है तो शरीरस्थ अग्नि रक्षण हेतु "भोजनाग्रे सदा पथ्यं लवण आर्द्रक भक्षणम्I" अर्थात भोजन प्रारम्भ से पूर्व थोड़ी मात्रा में अदरक व सैन्धव लवण क सेवन प्रशस्त माना गया है।

आयुर्वेद सनातन भारतीय संस्कृति के इस सिद्धांत को भी अत्यंत महत्वपूर्ण मानता है कि "मितास्यु सात्विक आहारा" अर्थात भोजन हमेशा अपने भोजन पाचन शक्ति से कुछ कम मात्रा में ही ग्रहण करना चाहिए। आचार्य चरक ने स्वयं कहा है "मिताशी स्यात" क्योंकि यदि अग्नि का या पाचन शक्ति का ध्यान नहीं रखा गया तो आयुर्वेद स्वयं कहता है "रोगा सर्वे मंदागन्नो" अर्थात भोजन की असंतुलित मात्रा विविध व्याधियों की उत्पत्ति की जनक मानी जाती है। गीता में भगवान श्रीक़ृष्ण ने स्वयं कहा है "अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रित: | प्राणापानसमायुक्त: पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ||" अर्थात अग्नि का संरक्षण सदैव करते रहना चाहिए ।

आयुर्वेद भोजन के कुछ सामान्य नियम बताता है जिससे हम न केवल अपने परिवार अपितु पूरे राष्ट्र को स्वस्थ & समर्थ बना सकते है। आचार्य चरक ने कहा है कि "तत्रेदमाहारविधिविधानमरोगाणामातुराणां चापि केषाञ्चित् काले प्रकृत्यैव हिततमं भुञ्जानानां भवति- उष्णं, स्निग्धं, मात्रावत्, जीर्णे वीर्याविरुद्धम्, इष्टे देशे, इष्टसर्वोपकरणं, नातिद्रुतं, नातिविलम्बितम्, अजल्पन्, अहसन्, तन्मना भुञ्जीत, आत्मानमभिसमीक्ष्य सम्यक्||"

अर्थात उष्ण, स्निग्ध, मात्रापूर्वक, भोजन के पच जाने पर, वीर्य के अविरुद्ध, अपने मन के अनुकूल सामग्रियों के सहित आहार को न अधिक जल्दी, न अधिक देर से, न बोलते हुए, न हँसते हुए, अपना आत्मा का विचार कर आहार द्रव्य में मन लगा कर भोजन करना चाहिए।

आज के इस युग में हमारे परिवारों में मैदा से बनी कई वस्तुओं का हम सेवन करते है जो की स्वास्थ्य के लिए हितकर नहीं है । आयुर्वेद यहाँ तक कहता है कि पिष्टान्न अर्थात मैदा या आटे कि अपेक्षा दलियाँ अधिक लाभकारी है लेकिन यदि मैदा से बनी हुई वस्तुओं का सेवन बंद कर पाना संभव नहीं हो तो "पिष्टान्न नैव भुञ्जित मात्रया वा बुभुक्षित, द्विगुणम च पिबेत तोय सुखं सम्यक प्रजीर्यते"। अर्थात मैदा कि कोई भी वस्तु खाने के बाद उस दिन पानी पीने कि मात्र द्विगुणित कर देना चाहिए जिससे उसका पाचन सम्यक हो सके।

आयुर्वेद दधि की अपेक्षा तक्र के सेवन को अधिक लाभकारी मानता है और त्रिदोषों के अनुसार भिन्न-भिन्न रूप में तक्र का प्रयोग बताता है I अर्थात वात दोष का शरीर में आधिक्य हो तो सैन्धव के साथ प्रयोग करना चाहिए और यदि पित्त दोष हो तो शर्करा के साथ तक्र का प्रयोग करना चाहिए व यदि कफ दोष बढ़ा हुआ हो तो त्रिकटु के साथ तक्र सेवन करना चाहिए।

स्वस्थ रहने के लिए तथा उत्तम रस, रक्तादि धातुओं की वृद्धि हेतु "नित्यं सर्व रसभ्यासों " अर्थात प्रातः काल से सायं काल पर्यन्त हम जो भी कुछ ग्रहण करे उसमें षड रसों का समावेश अवश्य होना चाहिए अर्थात मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त व कषाय सभी रसों को भोजन में यथा समय समाविष्ट करना चाहिए। आज के इस आधुनिक युग में हम संस्कृति से दूर जा रहे है तथा पाश्चात्य सभ्यता का अनुसरण कर रोगों को आमंत्रित कर रहे है।

आयुर्वेद कहता है "विना गोरसं, गो रसं भोजनानां" अर्थात भोजन में गोदुग्ध से बनी वस्तु अवश्य होना चाहिए किन्तु दुर्भाग्य से हम ना गोवंश का महत्व समझ रहे है और ना ही गोदुग्ध का। आयुर्वेद आयु, बल, वर्ण एवं स्वास्थ्य की अभिवृद्धि हेतु गोघृत के उपयोग को रसायनवत निर्दिष्ट करता है किन्तु आज का आधुनिक समाज गोघृत के प्रयोग को महत्व नहीं दे रहा है जिसके परिणाम स्वरूप शरीर में कई प्रकार की न्यूनताजन्य व्याधियाँ उत्पन्न हो रही है। हम यहाँ तक अनुरोध करते है कि जिसके शरीर में कोलेस्ट्रोल बढ़ा हुआ है वे भी गोघृत का प्रयोग कर सकते है।

आयुर्वेद विरुद्ध आहार के प्रयोग को पूर्णतया प्रतिबंधित करता है किन्तु आज हम इन नियमों से बहुत दूर जा रहे है जिसमें दुग्ध का प्रयोग विरुद्ध आहार के रूप में सर्वाधिक किया जाता है। आयुर्वेद दुग्ध के साथ किसी भी फल के प्रयोग को निषिद्ध करता है किन्तु इस युग में मिल्क शेक जैसे केला, पपीता, सेव इत्यादि के संयोग से बनाये जाते हे ये सभी संयोग विरुद्ध है, इनका निर्माण दुग्ध के साथ नहीं करना चाहिए ये विविध प्रकार के त्वक विकारों को उत्पन्न करते है । दुग्ध के साथ में मूली, हरी सब्जियाँ, लहसुन एवं प्याज का प्रयोग सर्वाधिक कष्टप्रद है अतः हमें विरुद्ध आहार के नियमों का भी आयुर्वेदानुसार पालन करना चाहिए

नित्य स्वस्थ रहने के लिए प्रतिदिन आँवले का प्रयोग तथा गिलोय का प्रयोग सर्वाधिक प्रशस्त माना गया है। यदि हम इनका निरंतर सेवन करते है तो दीर्घायु एवं स्वस्थ आयु कि प्राप्ति अवश्य होती है।

कल्पयोग -

  • काली मरिच, आर्द्रक, तुलसी, दालचीनी का प्रयोग यदि क्वाथ बनाकर औषधीय गुणों से युक्त चाय की तरह किया जाए तो यह ज्वर, कास, प्रतिश्याय आदि व्याधियों में लाभकारी है, साथ ही यह रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है। यह आयुष क्वाथ के नाम से भी जाना जाता है।
  • ऋतु हरीतकी का प्रयोग रसायन का लाभ देने वाला होता है तथा सभी ऋतुओ में स्वस्थ्य रक्षण करता हे अतः 6 ऋतुओं में अलग-अलग द्रव्य के साथ हरीतकी का सेवन किया जाता है यथा-
  • शिशिर ऋतु = पिप्पली + हरीतकी

    वसंत ऋतु = मधु + हरीतकी

    ग्रीष्म ऋतु = गुड़ + हरीतकी

    वर्षा ऋतु = सैन्धव + हरीतकी

    शरद ऋतु = शर्करा + हरीतकी

    हेमंत ऋतु = शुंठी + हरीतकी

  • प्रमेह की चिकित्सा हेतु हरिद्रा व आमलकी का सेवन अत्यंत लाभकारी है।
  • लवण व अदरक का सेवन भोजन से पहले करना सदा के लिए पथ्य बताया है यह पाचक अग्नि को बढ़ाने वाला, भोजन में रुचि उत्पन्न करने वाला होता है।
  • (भोजनाग्रे सदा पथ्यं लवण आर्द्रक भक्षणम्I
    अग्नि सन्दीपनम् रूच्यम् जीव्हाकण्ठ विशोधनम्।।)

  • धान्यक हिम- धनियाँ को पानी में रात्रि में भिगो कर रखने से व प्रातः काल शर्करा के साथ प्रयोग करने से तृष्णा, अंतर्दाह में लाभ मिलता है।
  • पिप्पली चूर्ण को मधु के साथ मिलाकर उपयोग करने से ज्वर एवं कास रोगों में उपयोगी है।

यदि जन सामान्य को आयुर्वेद का सामान्य ज्ञान हो तो वह अपने आस- पास स्थित औषधियों का या हमारे रसोई घर में विद्यमान औषधियों का प्रयोग कर स्वस्थ रह सकता है जो अधो-लिखित है

  1. गुडूची इसे साधारण भाषा में अमृता के नाम से भी जाना जाता है। इसका स्वरस / चूर्ण/ क्वाथ किसी भी रूप में बच्चों से लेकर बड़ो तक कोई भी उपयोग कर सकता है। गिलोय में बहुत अधिक मात्रा में एंटीऑक्सीडेंट पाए जाते हैं साथ ही इसमें एंटी-इंफ्लेमेटरी और कैंसर रोधी गुण भी होते हैं इन्हीं गुणों के कारण यह ज्वर कामला, आमवात, प्रमेह आदि में लाभकारी है। यह मेध्य रसायन एवं वय स्थापक भी है। बहुत कम औषधियां ऐसी हैं जो वात, पित्त और कफ तीनों दोषों को नियंत्रित करती हो, गिलोय उनमें से एक है।
  2. अश्वगंधा अश्वगंधा में एंटीऑक्सीडेंट, लीवर टॉनिक, एंटी-इंफ्लेमेटरी, एंटी-बैक्टीरियल के साथ-साथ और भी कई पोषक तत्व होते हैं जो आयु को बढ़ाने में, यकृत विकारों में, दौर्बल्य में, मानसिक व्याधियों में अति उपयोगी है। यह रसायन के रूप हितकारी है।
  3. दालचीनी दालचीनी(Cinnamomum verum की छाल उपयोग में ली जाती है। इसका सेवन पाचनतंत्र संबंधी विकारों, दंत शुल में लाभकारी है।
  4. निम्ब (Azadirachta indica) नीम के पेड़ में एंटीबायोटिक, एंटीफंगल, एंटीवायरल तत्वों की अधिकता पायी जाती है। इसकी छाल, पत्ते त्वक विकारों में लाभदायक है, यह प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है।
  5. आमलकी- आंवला में विटामिन सी, गेलिक एसिड, केल्शियम प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। आंवले का प्रयोग रसायन के रूप में, अक्षि विकारों में, रक्तपित, प्रमेह एवं विबन्ध में किया जाता है।
  6. हरिद्रा - हरिद्रा कृमि रोग, त्वक विकार, प्रमेह, श्वसन संबंधी व्याधियों आदि में अत्यंत उपयोगी है। यह शरीर से कोलेस्ट्रॉल को कम करने में उपयोगी होती है।
  1. आर्द्रक/शुण्ठी- आर्द्रक मदांग्नि, जिह्वाकण्ठविशोधन, कुष्ठ, पाण्डु, शीतपित्त, श्वास, कास आदि व्याधियों में हितकर है।
  2. जीरक जीरक अग्नि दीपन का कार्य करता है। जीरक आनाह, वातानुलोमन, स्तन्यजनन, अपचन, अतिसार, अग्निमांद्य आदि व्याधियों में हितकर है।
  3. तुलसी- तुलसी प्रत्येक घर में होनी ही चाहिए क्योंकि यह प्रत्येक व्याधि में हितकर है। इसे सुरसा, भूतघ्नी, बहुमंजरी, देवदुन्दुभी, सुलभा, ग्राम्या आदि नामों से जाना जाता है। यह ह्रद्य, अग्निदीपक, कुष्ठ, पार्श्वशूलहर, वातकफ़हर, श्वास, कास आदि अनेक व्याधियों में अत्यंत उपयोगी है।

यदि घर के आस पास इन औषधीय गुणों से युक्त वनस्पतियों को लगाया जाये तो यह वातावरण की शुद्धि के साथ-साथ हमारे स्वास्थ्य की भी रक्षा करेगी और यदि व्यक्ति स्वस्थ होगा तो समाज स्वस्थ होगा, समाज के स्वस्थ होने से देश स्वस्थ बनेगा। स्वस्थ देश से ही देश विकास के पथ पर अग्रसर होगा और आत्मनिर्भर बनेगा। जिससे स्वस्थ भारत एवं सबल भारत सकल्पना सार्थक सिद्ध होगी I