आओ फिर से दिया जलाएँ
भारत के पूर्व प्रधानमंत्री स्व. श्री अटल बिहारी वाजपेयी का महर्षि दधीचि के बारे में अपार आदर रहा तथा दधीचि के भांति त्याग ही भारत का नव निर्माण कर सकता है, यह आपका विश्वास रहा। आपने दधीचि का संदर्भ देकर कई कविताएँ लिखी हैं। उसमें से एक कविता प्रस्तुत हैं। यह कविता आपने 15 अगस्त 2003 की दिल्ली के लालकिले से तथा 25 दिसम्बर 2003 को लखनऊ में अपने जन्म दिवस पर दोहराई थी। जिसका टेलीविजन पर बार-बार प्रसारण सुन हम अपने आपको गौरवान्वीत महसुस करते हैं।
भरी दुपहरी में अंधियारा,
सुरज परछाई से हारा,
अन्तरम का नेह निचोड़े,
बुझी हुई बाती सुलगाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ।
हम पड़ाव को समझे मंजिल,
लक्ष्य हुआ आंखों से ओझल,
वर्तमान के मोहजाल में,
आने वाला कल न भुलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ
आहुति बाकी, यज्ञ अधूरा,
अपनों के विघ्नों ने घेरा,
अंतिम जय का वज्र बनाने,
नव दधीचि हड़िडयाॅ गलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ