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अध्यक्ष की कलम से
समिति के ‘नाना जी’ नहीं रहे
श्री बलबीर राज कोहली,
दधीचि कुनबे में ‘नाना जी’ नाम से जाने जाते थे। उम्र की अठहत्तरवीं पायदान पर पहुंच चुके, मन और सक्रियता में किसी भी युवा के हौसले को चुनौती देने वाले ‘नाना जी’ विभाजन के बाद पकिस्तान से भारत आए और पंजाब प्रांत के धारीवाल में बस गए। वह एमईएस में सीनियर एडमिनिस्ट्रेटिव आॅफीसर के पद से निवृत्त हुए थे। अपने सेवाकाल में वह कश्मीर से लेकर भारत के कई प्रांतों में रहे, लेकिन उनका अधिकांश समय दिल्ली में ही बीता और दिल्ली उनका पड़ाव तथा कार्यक्षेत्र बना।
सरकारी नौकरी से सेवा निवृत्त होने के बाद वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक बने थे। नियमित शाखा जाते थे। संघ शिक्षा वर्ग में भी गए। आगे बढ़ कर ज़िम्मेदारी सम्भाली। भरी-पूरी शाखा चलाई, जिसमें नियमित कार्यक्रम होते थे। ‘जीवन भर चली आ रही ऐसी आदतें जो संघ-दधीचि कार्य के लिए उपयुक्त नहीं थीं, उन्होंने अपने जीवन’ से बीन कर निकाल दीं।
वह दस साल से ज़्यादा दधीचि देह दान समिति के उपाध्यक्ष/कार्यालय मंत्री इत्यादि रहे। वह सप्ताह में तीन दिन दधीचि कार्यालय आते थे। अपने पूरे कार्यकाल में शायद एकाध बार छोड़ कर वह हमेशा आए। हमेशा समय से पहले आए और पूरा समय कार्यालय में रुके, सिवाए उन अवसरों के जब वह दिल्ली से बाहर सत्संग में गए हों या अपनी बेटी के पास गए हों। उनके रहते दधीचि कार्यालय का सब काम हमेशा पूरा पाया जाता था।
बाद के वर्षांे में वह बस से समिति के कार्यालय आए और फिर पैदल आने लगे लेकिन पैदल आने में उन्हें कष्ट होने लगा था। मैंने कई बार उनसे कहा कि वह थ्रीव्हीलर से आएं और उसका खर्च समिति देगी। वह चुप रह जाते थे, पर इस सुविधा का उन्होंने कभी लाभ नहीं उठाया।
वह संतुष्ट और प्रसन्न रहते थे। अपने सम्पर्क में आने वालों को भी वह प्रसन्नता बांटते रहते थे।
संघ-दधीचि-सत्संग इन तीनों से वह अपना जीवन निखारते रहे। अपनी शक्ति-बुद्धि-प्रतिभा को समय लगा कर समाज में बांटने रहे।
मृत्यु से करीब एक महीने पहले वह अपनी बेटी के पास ऊधमपुर (जम्मू) गए हुए थे। वहां उनकी तबीयत खराब हुई, थोड़ी ज़्यादा बिगड़ी। बच्चे कहते रहे डाॅ. को दिखाने के लिए, लेकिन उन्होंने रट लगा दी कि ‘मुझे तो बस पैक कर दिल्ली ले चलो, मुझे देहदान करना है।’ हार कर बच्चे उन्हें दिल्ली ले आए और मूलचंद अस्पताल में भर्ती करा दिया। सर्जरी से पहले ही देह दान का उनका ध्येय था, लेकिन उनकी बीमारी को देखते हुए देह दान नहीं हो सका।
उनके आखिरी समय में जब मैं उनसे मिलने अस्पताल गया था, उन्होंने मुझसे कहा था, ‘‘मैं ठीक हो रहा हूं, अगले सप्ताह से फिर शाखा जाना और समिति का काम शुरू कर दूंगा।’’ लेकिन भगवान को कुछ और ही मंज़ूर था। वह अपनी बीमारी से उबर नहीं सके। और, 23 अगस्त 2015 को उन्होंने अपना नश्वर शरीर छोड़ दिया। अदम्य निष्ठा के वह धनी थे।
दधीचि देह दान समिति का काम और समिति से जुड़े कार्यकर्ता तथा सत्संग मानो उनका जीवन थे। समिति के कार्यकर्ताओं को कभी प्यार से सहला कर कभी डांट कर परिवार के एक स्नेही बुज़ुर्ग की तरह वह वात्सल्य की अपनी शीतल छाया के तले सभी को एक माला में पिरो कर रखते थे। उनकी मृत्यु के बाद उनके मित्रगण, सत्संग के साथी और समिति सभी ने यह महसूस किया कि उन्होंने लक्ष्य का एक धुनी व्यक्ति खो दिया। वह पुण्यकर्मी थे, अवश्य बैकुंठ गए होंगे। भगवान हमें उनके रास्ते पर चलने का बल दें।
आलोक कुमार
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