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सर्वोच्च ऊंचाई पर भी सहजता कायम है!
दधीचि देह दान समिति की ओर से मैं और मेरे कुछ साथी नव निर्वाचित राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविन्द से मिले। उनके कक्ष में अभी हम सभी प्रवेश ही कर रहे थे कि उन्होंने मुझे आवाज़ लगा कर कहा, ‘‘आप तो हमेें भूल ही गए। इतने दिन बाद आना हुआ!’’ श्री कोविन्द राष्ट्रपति तो बन गए लेकिन हम सब के लिए आज भी सहज मित्रवत् हैं, और, अपने कद के बड़े होते जाने के बावज़ूद कार्यकर्ताओं एवं साथियों के प्रति उनके व्यवहार और भाव में अब भी पहले जैसी ही मित्रता और सरलता है।
श्री कोविन्द का जन्म उस जाति में हुआ जिसे दलित कहा जाता है। वह निम्न मध्य वर्ग परिवार से हैं। जिस गांव में उनका जन्म हुआ वह बहुत छोटा था। स्कूल जाने के लिए उन्हें बहुत दूर तक पैदल चलना पड़ता था। लेकिन वह पढ़ते गए, बढ़ते गए। गांव से दिल्ली आ गए। जनता पार्टी की सरकार में सांसद रहे। भारतीय जनता पार्टी के अनुसूचित जाति मोर्चा के अध्यक्ष रहे। बड़े आंदोलनों का निर्माण व नेतृत्व किया। कर्म विशाल होता गया। अंदर की सहजता स्थिर ही रही।
मैंने बात करनी शुरू की। उन्होंने टोका, ‘‘सबका परिचय तो कराइए। परिचय लेना औपचारिकता नहीं थी। वह सभी के बारे में ध्यान से सुन रहे थे। दधीचि देह दान समिति के कार्यों के बारे में विस्तृत जानकारी ली। पूछा, दान के बाद देह कितनी देर में वापस मिल जाती है। मैंने बताया, अंग दान में संबंधित अंग को निकालने में जितना समय लगता है उसके बाद देह परिवारजनों को सौंप दी जाती है। नेत्र दान में मृतक के निवास पर आकर ही नेत्र ले लिए जाते हैं। लेकिन, देह दान होता है तो पूरा मृत शरीर चिकित्सा विद्यार्थियों की पढ़ाई के काम आता है। मृत शरीर को दो साल तक रसायनों से संभाल कर एनाॅटमी विभाग में रखा जाता है। इसके बाद उसका उसके धर्मानुसार अंतिम संस्कार कर दिया जाता है।
हमने उन्हें एक पत्र दिया, जिसमें उत्सव में आने का निमंत्रण था। निमंत्रण इसी वर्ष 5 नवम्बर के प्रस्तावित उत्सव के लिए था। उन्होंने कहा, ‘‘आऊंगा। इसके अलावा उत्सव के लिए और कोई तारीख हो सकती है?’’ हमने कहा, ‘‘आप जब आ सकेंगे हम तभी उत्सव आयोजित कर लेंगे।’’
प्रेम, गर्मजोशी और आशीर्वादों से भरे वातावरण में विदाई ली। हो सकता है आएं, हो सकता है किसी अन्य व्यस्तता के कारण न आ पाएं तो भी दधीचि देह दान समिति का काम उनके मिले आशीर्वाद से अबाध चलता रहेगा।
आलोक कुमार
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