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अधिक महत्वपूर्ण है ’’सकल राष्ट्रीय प्रसन्नता’’!
दुनिया में किसी भी देश की आर्थिक प्रगति उसके सकल राष्ट्रीय उत्पाद (ग्राॅस नेशनल प्राॅडक्ट-जीएनपी) से नापी जाती है। एक वर्ष में होने वाले उत्पादन के आधार पर आर्थिक प्रगति निर्धारित की जाती है। भूटान के राजा जिग्मे सिंग्ये वांग्चुक (जिन्हें ड्रेगन किंग के नाम से जाना जाता है) के मन में प्रश्न उठे कि प्रगति को क्या वस्तुओं के उत्पादन से नापा जा सकता है? क्या ऐसा करना ठीक है? प्रगति का लक्ष्य क्या है? यह (लक्ष्य) उत्पादन में है? व्यक्ति की खर्च करने की क्षमता में है? उसका जीवन-स्तर अच्छा होने के आधार पर है? या यह सब व्यक्ति की प्रसन्नता के केवल साधन हैं? उन्होंने यह समझा (उन्हें यह अहसास हुआ) कि सरकार या अन्य संगठनों का उद्देश्य मनुष्य की प्रसन्नता होनी चाहिए। हर व्यक्ति को यह प्रसन्नता प्राप्त हो। यह प्रसन्नता आने-जाने वाली न हो। कम-ज़्यादा न हो। सदैव बनी रहे।
इस मनोमंथन के बाद राजा वांग्चुक ने तय किया कि भूटान की प्रगति लोगों की प्रसन्नता के स्वर से नापेंगे, उत्पादन-आंकलन से नहीं। प्रगति का मापदंड होगी सकल राष्ट्रीय प्रसन्नता - सकल राष्ट्रीय उत्पाद नहीं। इस सोच से कुछ और प्रश्न खड़े हुए। जैसे, क्या राज्य आनंद बांट सकता है? क्या आनंद को नापा जा सकता है? राष्ट्रीय आनंद की परिस्थितियों को नापने का क्या कोई तथ्यपरक पैमाना हो सकता है? कानून, आदेश या राजाज्ञा से व्यक्ति के हृदय में आनंद पैदा नहीं होता। पर, यह भी सच है कि कानून व राज्य उन परिस्थितियों का निर्माण कर सकते हैं जिनमें व्यक्ति के लिए आनंद के पर्याप्त अवसर हों।

मेरे भूटान प्रवास के समय, इस संबंध में चर्चा करने के लिए हम वहां के सकल राष्ट्रीय प्रसन्नता आयोग (ग्राॅस नेशनल हैप्पीनेस कमीशन-जीएनएचसी) के सचिव से मिले। हमने सवाल किए कि क्या राज्य आनंद बांट सकता है? क्या आनंद को नापा जा सकता है? राष्ट्रीय आनंद की परिस्थितियों को नापने का क्या कोई तथ्यपरक पैमाना हो सकता है? कानून, आदेश या राजाज्ञा से व्यक्ति के हृदय में कैसे आनंद पैदा हो सकता है? सचिव का उत्तर था ऐसा हो सकता है अगर राज्य व्यक्ति के आनंद की परिस्थितियां उत्पन्न करे। उदाहरण के लिए, मान लीजिए एक बांध बनाना है। आम तौर पर सरकारें सोचती हैं - इस बांध से कितनी बिजली बनेगी? सिंचाई कितनी होगी और कितने लोगों को रोज़गार मिलेगा? जीएनएचसी के सचिव ने कहा, उनके सामने ऐसी कोई परिस्थिति आती है तो वह विचार करते हैं कि इस बांध के निर्माण के दौरान कितने लोगों का विस्थापन होगा? अपने-अपने घर-खेत व काम-धंधे से उजड़ कर कितने लोग वहां जाएंगे? उनके पुनर्वास की योजना के तहत उनके नए घर, बाज़ार, स्कूल, मनोरंजन स्थल, रोज़गार आदि की व्यवस्थाएं, उनके उजड़ने से पहले, पूरी तौर पर हो जानी चाहिए।
एक प्रश्न मन में आता है कि बांध पर काम करने के लिए कहां से लोग आते हैं? ऐसे लोग अगर दूर-दराज़ से आने वाले हैं तो क्या वह परिवार के साथ आएंगे? या उसे छोड़ कर आएंगे? यदि परिवार के साथ आते हैं तो क्या सुविधाएं चाहिए होंगी? कर्मचारी-श्रमिक कितने घंटे काम करेंगे? अपने खाली समय को वह उपयोगी और मनोरंजक तरीके से बिता सकें इसकी व्यवस्थाएं क्या होंगी? घर, स्कूल, बाज़ार के साथ-साथ खेलने के मैदान, पुस्तकालय, कलागृह और ऐसी अन्य व्यवस्थाएं उपलब्ध कराना जिससे कोई उजड़ा-सा नहीं रहेगा, कोई अकेला नहीं रहेगा। हम उनकी बात दोहराते हैं।
पूरे विश्व का ध्यान इस ओर गया। वर्ष 2011 में संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएनओ) ने ’’प्रसन्नता और मानवकल्याण: नए आर्थिक प्रतिमान परिभाषा’’ पर पहली बार एक बैठक बुलाई, जिसमें विश्व भर की सरकारों के प्रमुखों को, अपने न्यूयाॅर्क स्थित मुख्यालय पर, निमंत्रित किया। इसमें 68 देशों ने भाग लिया। इसकी अध्यक्षता यूरोपीय पर्यावरण एजेन्सी (ईईए) की कार्यकारी निदेशक जैक्लिन मैक्ग्लैड ने की। बैठक में सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया कि जीएनएच को बढ़ाना सरकारों का लक्ष्य होना चाहिए। इसके लिए मानकों और मापकों की खोज शुरू हुई। कुछ मानक तय हुए। जैसे, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार, खाली समय का उपयोग, परस्पर संबंध, न्याय-व्यवस्था आदि।
जीएनएच के आधार पर, विश्व के देशों की जांच करके, हर वर्ष रिपोर्ट दी जाती है। अंतिम रिपोर्ट इस वर्ष आई। जीएनएच के 155 देशों में भारत 122वें नम्बर पर है। हमसे सुखी देशों में बांग्लादेश, नेपाल और पाकिस्तान जैसे देश भी हैं। भारत का स्थान इतना नीचे होना चिन्ताजनक है। सारी प्रगति व्यक्ति के लिए होती है। सड़क, कल-कारखाने, खेत-खलिहान, बाज़ार, मंडी और हाट अगर व्यक्ति को आनंद नहीं दे सकते तो वो किस काम के? चमक-धमक, अट्टालिकाएं, चौड़ी सड़कों पर भागती बड़ी गाड़ियां अगर एक ओर राज्य के शहरों की शान-ओ-शौक़त को बढ़ाती हैं तो दूसरी ओर व्यक्ति भीड़ में अकेला पड़ जाता है, तनाव में जीता है, नई-नई बीमारियां घेर लेती हैं, ज़हरीली हवा में सांस लेता है, बीमार करने वाला भोजन खाता है। ऐसे में देशों की दिखने वाली प्रगति क्या वास्तविक है?
मैं बैलगाड़ी युग में लौटने की बात नहीं कर रहा हूं। इस ओर ध्यान दिलाना चाहता हूं कि इस सारी प्रगति और प्रगति के सभी प्रयत्नों के केन्द्र में देश के सामान्य व्यक्तियों को होना है। हमारा सारा उद्यम व्यक्ति को आनंद देने की परिस्थितियां बनाना है। इन परिस्थितियों का निर्माण ही हमारे सब कार्यों की प्राथमिकता है। इस ओर सब लोग जुट जाएं तो वैदिक आदर्श मूर्तिमंत हो जाएगा:-
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःख भाग् भवेत्।।
आलोक कुमार
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