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अध्यक्ष की कलम से
पूज्य मुरारी बापू की राम-कथा विश्व में आदर के साथ सुनी जाती है। यह कथा इस देश की सनातन संस्कृति को वर्तमान में गतिमान रखने की उनकी साधना है। हमारे मन में था कि देह-अंगदान पर उनके विचार देश को बांटें।
इसके लिए हमारा सम्पर्क-सूत्र बने दीक्षित दनकौरी। एक जाने-माने कवि और शायर। पूरी दुनिया में आयोजित होने वाले मुशायरों और काव्य समारोहों में आमंत्रित किए जाते हैं। पाकिस्तान में बहुत लोकप्रिय हैं। मुरारी बापू भी अपनी कथा के बीच एक दिन कवियों के लिए रखते हैं और पर्यटकों के साथ बैठते हैं। कविताओं को आध्यात्म के साथ जोड़ते हैं। बापू, दीक्षित दनकौरी को सुनने के लिए दर्शकों के साथ अक्सर बुलाते रहते हैं। हमने दनकौरी जी से प्रार्थना की कि हम अपनी इंटरनेट पत्रिका के आने वाले अंक में बापू का साक्षात्कार लेंगे। बापू ने सहज समय दे दिया।
मुरारी बापू का आश्रम अहमदाबाद से 300 किलो मीटर दूर है। सबेरे के विमान से हम अहमदाबाद पहुंचे। मेरे मित्र भरत पण्डया गुजरात भजपा के महामंत्री और पूर्व विधायक हैं। उन्होंने आश्रम तक हमारे आने-जाने की व्यवस्था की। बापू अपने गांव जलगाजरडा में ही रहते हैं। उनका संयुक्त परिवार है और सभी साथ रहते हैं। जिनको बापू से मिलना होता है उन्हें गांव जाना होता है। साफ-सुथरा, सुरम्य, हरियाली से भरा गांव। उनके गुरुकुल के अतिथि-गृह में साफ, सुंदर, आधुनिक सुविधाओं से युक्त भोजनालय भी है। सारी प्रक्रियाएं सहज, सुचारू और सुरुचिपूर्ण हैं। हमें वहीं ठहराया गया।
अगले दिन सबेरे का समय मिला। गुरुकुल का सात्विक अल्पाहार करके हम मुरारी बापू के गांव चल पड़े। गांव के मोड़ पर, बापू का बनवाया हुआ गणेश जी का मंदिर है। देवताओं के अग्रणी गणेश की पूजा करके, देह-दान कार्यक्रम से निरामय भारत के लिए बापू का आशीर्वाद प्राप्त होने की प्रार्थना की और हम बापू के आश्रम में जा पहुंचे। आश्रम की व्यवस्था नरेश जी के हाथ में है। थोड़ी देर में बापू आकर झूले पर विराजमान हुए। सामने हनुमान जी की विशाल मूर्ति और मंदिर हैं, जो झूले से निरंतर दिखते रहते हैं। एकदम ‘‘कनक-भूधराकार सरीरा, कंचन वरण विराज सुवेशा’’। सोने के रंग की विशाल मूर्ति। जब बापू के दर्शन के लिए हमें बुलाया गया तो हमने देखा वहां हमारे लिए कुर्सियां लगी हुई हैं। हम संत के पास भूमि पर बैठना चाहते थे। आग्रह हुआ ‘‘नहीं, कुर्सी पर बैठिए’’। विष्णु सहत्रनाम में उल्लिखित है ‘‘मानदो मान्यो’’। वह मान देते हैं और सर्वमान्य हैं। संकोच के साथ हम कुर्सियों पर बैठे। संतों का यही स्वभाव होता है। बापू से ऐसे भेंट हुई जैसे हम लम्बे समय से परिचित हों। रिकाॅर्डिंग की व्यवस्था, हमारे लिए आश्रम में नीलेश जी व श्री रामशंकर बजौरिया द्वारा की गई थी।
बापू से हमने साक्षात्कार के लिए कहा। संकोच से उन्होंने कहा, ‘‘बहुत बड़ा काम है। मैं भी एक देह-दानी परिवार को जानता हूं। अपने प्रवचनों में उनका उल्लेख करता रहता हूं। काम उत्तम है, पर मुझे उस पर बोलने में संकोच है।’’ उन्होंने कहा, वो जिस परम्परा में हैं उसमें व्यक्ति समाधिस्थ होता है और जिसे ‘‘तोड़ने का साहस मैं अभी तक नहीं जुटा पाया। मैं ही नहीं करूं तो कहूं कैसे?’’ कोई बहाना नहीं, कोई वंचना नहीं। सरल संत ने सीधे अपना मन कह दिया।
मैंने कहा, ‘‘बापू, लोग मानते हैं अंतिम संस्कार के बिना मोक्ष नहीं होगा।’’ बापू ने कहा, ‘‘ संस्कृति को प्रवाही होना चाहिए। गंगा हर मोड़ पर बहती रहनी चाहिए।’’ इन दो संक्षिप्त वाक्यों में उन्होंने स्पष्ट कर दिया, ‘‘सभी रूढ़ियों के रुके पानी की सड़ांध को मानो पार करके नित्य प्रवाही जल की तरह, संस्कृति की धारा आवश्यकताओं के अनुसार चिरसनातन रह कर निरंतर वर्धमान और नूतन भी होती रही है। सनातनता आधार देती है बांधती नहीं है।’’
Prof. Dr. Narender Kr. Mehra ...