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अध्यक्ष की कलम से
वर्ष 2014 मेरे लिए कष्टदायक रहा। दुर्दैव से माँ, पिताजी दोनों का ही इसी वर्ष देहांत हुआ। अपने जीवन कल में उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि मरणोपरांत उनका शरीर मैडीकल कॉलेज के बच्चों की शिक्षा के लिए दान हो। 5 जुलाई को अपनी माँ की देह को दान करने के लिए जीटीबी हस्पताल पंहुचा। वहाँ के डाक्टर ने बताया कि चिकित्सा विज्ञान के विद्यार्थी देह को परत दर परत खोल कर, इससे शरीर रचना को पढेंगे। यह सुन कर मुझे लगा कि माँ स्वर्ग में कितनी संतुष्ट हो रही होंगी। जीवन भर उन्होंने हम सबकी सेवा की और मृत्यु के बाद भी उनकी देह का हर पोर काम आयेगा।
ऐम्स में अस्थि रोग विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर राजेश मल्होत्रा ने मृत देह की एक और महत्वपूर्ण उपयोगिता को स्पष्ट किया। उन्होंने बताया, यदि किसी मरीज की क्षतिग्रस्त अस्थि के लिए अन्य मानव की मैचिंग अस्थि मिल जाये, तो वह बहुत शीघ्र स्वस्थ हो जायेगा। वर्तमान में इस तरह की मानव अस्थियों का बहुत अभाव है।
इस बीच 15 जून 2014 को संपन्न अपनी कार्यकारिणी की बैठक में यह तय किया गया था कि, दिल्ली से प्रति वर्ष श्रद्धालु दधीचि की दर्शन यात्रा पर जायेंगे। वहां जहाँ महर्षि दधीचिने युगों पहले अपनी अस्थियाँ देव संस्कृति की रक्षा के लिए दान की थी। यह स्थान उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले में है और इसका नाम है मिश्रिख। इसकी तैयारी के लिए, 13 अक्टूबर को मैं श्री प्रमोद अग्रवाल व श्री सुधीर गुप्ता के साथ मिश्रिख गया। मिश्रिख में महर्षि दधीचि का आश्रम है, इसका नाम 'सर्वाकार श्री महर्षि दधीचि आश्रम' है। यहाँ एक विशाल सरोवर है। आश्रम के महंत श्री देव दत्त गिरी ने सरोवर के बारे में बतया। महर्षि दधीचि द्वारा अस्थि-दान का निर्णय लेने के बाद, देवताओं ने सभी तीर्थों का जल लाकर इस सरोवर को भरा, उस जल से महर्षि दधीचि ने स्नान किया। इसके बाद कामधेनु ने, उन्हें कष्ट दिए बिना, उनकी सम्पूर्ण देह को चाट-चाट कर अस्थि-पंजर में बदल दिया। उस अस्थि-पंजर से देवताओं ने व्रज बनाया और वृत्रासुर का वध किया। आश्रम में यह श्लोक लिखा हुआ है:-
धन्योअहं चास्थि मे धन्यं यस्माद्देवाः प्रवृद्धये ।
ददामि नास्ति संदेहो नियमश्च मायाकृतः । ।
अर्थ है – "मैं धन्य हूँ, मेरी अस्थियाँ धन्य हैं, जिनके द्वारा देवताओं की अभिवृद्धि होगी। निःसंदेह मैंने संकल्प लिया है कि मैं अस्थियाँ दान करूँगा।"
स्वयं मैं, स्वप्नों और कल्पनाओं में जीता हूँ। यह श्लोक पढते ही, मृत्यु के बाद मेरी देह की उपयोगिता, एक चलचित्र के समान मेरी आँखों के सामने, मानो साकार हो गई। मैंने देखा, मेरी देह की अस्थियाँ दान हो रही हैं, इनसे लोग स्वस्थ हो रहे हैं। धन्य हैं, मेरी अस्थियाँ। मैंने देखा, मेरी मृत देह के हर पोर को परत-दर-परत खोला जा रहा है। मेरे जीवन में मेरे घुटने सीढी चढ़ते समय कष्ट देते रहे, लेकिन मैंने अपने भाव-चलचित्र में देखा, विद्यार्थी मेरी देह पर बीमारों के घुटने बदलने का अभ्यास कर रहे हैं।
मुदित मन से मैं दधीचि आश्रम के सरोवर की ओर चल पड़ा। सरोवर के जल से मैंने आचमन और अंग स्पर्श किया। साथ ही, मन ही मन प्रार्थना की, कि मैं सौ वर्ष तक स्वस्थ और अदीन रह कर इस समाज के लिए पुरुषार्थ करूँ और मृत्यु के बाद, देह रूपी पुराना वस्त्र पूरा का पूरा मानव सेवा के काम आ जाये।
स्वस्थ भारत के निर्माण में यही हमारा सबल योगदान है। आइये, हम सब इस दधीचि परंपरा के सहभागी बनें।
husband’s sacrifice by donating...
cells from the nose to the spinal cord ...
आचार्य राजेष (AIIMS)
Dr. Vinay Aggarwal