12 नवम्बर, 2019, देह दान व अंग दान आंदोलन के लिए एक महत्वपूर्ण दिन रहा। इस दिन भारत के उपराष्ट्रपति महामहिम श्री एम. वेन्कैया नायडू ने देशवासियों, विशेषकर युवाओं से आह्वान किया कि धार्मिक रूढ़ियों को छोड़ कर इस विषय पर धार्मिक दृष्टिकोण का पुनः वैज्ञानिक आधार परिभाषित करें। इसका अर्थ यह समझ में आता है कि इस विषय पर अपनी-अपनी मान्यताओं को मौलिक रूप से समझना चाहिए और जानने का प्रयास करना चाहिए कि इन मान्यताओं की जड़ में क्या है?
हज़ारों-लाखों वर्ष पूर्व तत्कालीन धार्मिक एवं सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार अंतिम संस्कार जैसे विषय पर धारणाएं एवं नियम बनाए गए। आज जब विज्ञान ने इतनी उन्नति कर ली है कि हम क्लोन बनाने की बात करते हैं, मंगल ग्रह पर विमान उतारा जा रहा है, नासा का एक विमान हमारे सौर मंडल को पार करके अन्य सौर मंडलों की खोज कर रहा है, तो क्या हमें मानवता के कल्याण के लिए अपनी मानव जाति हेतु अंग दान न करने के पीछे की रूढ़ियों को अब नहीं छोड़ देना चाहिए?
हिन्दू मान्यताओं के अनुसार मानव जीवन मेें 16 संस्कारों को अपनाने के लिए कहा गया है। क्या हमें 16 संस्कारों का पूरा ज्ञान भी है? क्या हम 16 संस्कारों को अपने जीवन में अपना रहे हैं? फिर अंतिम संस्कार के लिए ही इतनी चिन्ता क्यों? पेड़ों को बचाने एवं प्रदूषण कम करने के लिए कुछ लोग अंतिम संस्कार सी.एन.जी. या बिजली द्वारा भी करने की इच्छा व्यक्त करते हैं और इस तरह से अंतिम संस्कार हो भी रहे हैं। पेड़ और प्रदूषण का विषय भी तो मानव जाति के लिए ही है, फिर देह दान तो उससे भी महत्वपूर्ण विषय है, जो सीधे-सीधे समाज को अधिक स्वस्थ एवं सबल बना सकता है।
महर्षि दधीचि द्वारा अपनी अस्थियों का दान स्वीकार करना केवल मानवता एवं दैवीय संस्कृति की रक्षा के लिए था। हमारे साधु समाज द्वारा जीवन के अंतिम चरण में वन गमन अथवा जल समाधि लेना भी तो वनों का संरक्षण करना एवं जलचरों को भोजन मिले अथवा पंच तत्व में ही विलीन हों - इन्हीं कारणों से रहा होगा।
हमारे पौराणिक ग्रंथों के मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने भी, सरयू नदी में जल समाधि लेकर अपनी देह को त्याग दिया था। यही उनका अंतिम संस्कार था। क्या हमें भगवान राम एवं महर्षि दधीचि का अनुसरण नहीं करना चाहिए?
अंग दान करने से न केवल हमें दूसरा जीवन मिलता है, साथ ही हम पूरे समाज को भी नए जीवन की आशा-किरण देते हैं।
अंग दान-देह दान को नए दृष्टिकोण से, मानवता के दृष्टिकोण से देखने की आवश्यकता है।
हर्ष मल्होत्रा