वर्ष 2024-25 में दिल्ली विश्वविद्यालय की युवा पीढ़ी के साथ चर्चा का अवसर मिला। इसके लिए धन्यवाद प्रधानमंत्री जी का, जिन्होंने ‘मन की बात’ कार्यक्रम में अंगदान का विषय उठाकर समाज में इस दिशा में संवेदना पैदा की। यह विषय सीधे समाज के स्वास्थ्य से जुड़ा है। इसी उद्देश्य से स्वास्थ्य मंत्री ने सभी विश्वविद्यालयों के कुलपतियों को पत्र लिखकर अंगदान पर जागरूकता कार्यक्रम आयोजित करने का आह्वान किया।
इसी क्रम में दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति से श्री आलोक कुमार की बातचीत हुई। तत्पश्चात कुलपति प्रो. योगेश ने समिति के प्रतिनिधियों और विश्वविद्यालय के सभी कॉलेजों के प्रतिनिधियों के साथ बैठक बुलाई। इसमें निर्णय लिया गया कि प्रत्येक कॉलेज में समिति के सहयोग से अंगदान और देहदान पर जागरूकता कार्यक्रम किए जाएंगे। इसका दायित्व मुख्य रूप से एनएसएस और एनसीसी को सौंपा गया।
दधीचि टीम ने संकल्प लिया कि 2024-25 के शैक्षणिक सत्र में प्रत्येक कॉलेज में एक कार्यक्रम अवश्य हो। समिति के समर्पित कार्यकर्ताओं की सक्रिय भूमिका से 46 कॉलेजों में ये कार्यक्रम सफलतापूर्वक संपन्न हुए। कार्यक्रमों की विस्तृत रिपोर्ट संलग्न है। उत्साहवर्धन की बात यह रही कि सभी कॉलेजों ने इन कार्यक्रमों को अपनी नियमित गतिविधियों का हिस्सा बनाने का निर्णय लिया। कुछ कॉलेजों ने तो स्थायी समितियाँ भी गठित कर दी हैं।
चिकित्सा शिक्षा में योग्य डॉक्टरों के निर्माण के लिए पार्थिव देह ‘प्रथम गुरु’ के रूप में उपयोगी होती है। प्रत्येक चिकित्सा विद्यार्थी अपनी पढ़ाई के पहले वर्ष में मृत शरीर (कैडेवर) पर शरीर-क्रिया विज्ञान की व्यवहारिक शिक्षा प्राप्त करता है। मेडिकल कॉलेजों को यह कैडेवर देहदान के माध्यम से ही मिलते हैं। एक कैडेवर का उपयोग अधिकतम डेढ़ से दो वर्ष तक ही हो सकता है, इसलिए यह आवश्यकता निरंतर बनी रहती है।
इसी प्रकार, बीमार अंगों के प्रत्यारोपण से रोगी को स्वस्थ और लंबा जीवन प्राप्त हो सकता है। ब्रेन डेड स्थिति में यदि जीवनरक्षक अंग दान कर दिए जाएँ तो एक व्यक्ति 6 से 8 लोगों को नया या बेहतर जीवन दे सकता है। मृत देह का दान हो या अंगदान—इसका निर्णय मृत व्यक्ति के परिवारजन ही कर सकते हैं।
जीवनकाल में हम अन्न, धन और वस्त्र का दान करते हैं—“जो मैंने सोचा और कर दिया।” परंतु अंगदान और देहदान के लिए पूरे परिवार को सजग और जागरूक होना पड़ता है। यदि युवा वर्ग इस विषय को समझ ले तो यह परंपरा परिवार की ऊपर-नीचे पाँच पीढ़ियों तक पहुँच सकती है।
हमारे सामाजिक परिवेश में मृत्यु की बात करना अक्सर भय और आशंका का कारण माना जाता है। जबकि मृत्यु अवश्यंभावी है, अप्रत्याशित है और सृष्टि की गतिशीलता का एक स्वाभाविक क्रम है। इससे न डरना चाहिए, न भागना चाहिए। जब मृत्यु के बाद की उपयोगिता समझ आती है और स्वीकार हो जाती है, तब संकल्पकर्ता अपने स्वास्थ्य के प्रति भी संवेदनशील हो जाता है।
संकल्पकर्ता की मृत्यु तभी सार्थक होगी जब वह स्वस्थ शरीर छोड़कर जाएगा। यदि दान का संकल्प लिया है तो हमें ट्रस्टी भाव से शरीर का ध्यान रखते हुए स्वस्थ जीवन जीना चाहिए, ताकि मृत्यु के पश्चात भी हम चिकित्सा-जगत को एक अमूल्य और उपयोगी धरोहर सौंप सकें।
शुभाकांक्षी
मंजु प्रभा